Milky Mist

Wednesday, 30 October 2024

संयोगवश बने कारोबारी, आज है 1500 करोड़ के टर्नओवर का कारोबार

30-Oct-2024 By जी सिंह
भुबनेश्वर

Posted 26 Jan 2018

अपने नाम को सार्थक करते हुए फ़ाल्कन ने ऊंची उड़ान भरी और बन गया 1500 करोड़ के टर्नओवर वाला बिज़नेस. 

तारा रंजन पटनायक एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनका कारोबारी बनने का यूं तो कोई इरादा नहीं था, लेकिन शायद क़िस्मत यही चाहती थी कि वो कारोबारी बनें. एक तरह से उन्होंने स्वयं समुद्र में कूदकर तैराकी सीखी और इस बात का दृढ़ विश्वास रखकर सफलता अर्जित की कि वो अपने बल पर तैरकर सुरक्षित तट तक पहुंच जाएंगे.

उनकी जीत की कहानी से दूसरे भी प्रेरणादायी है. उम्र के 64 पड़ाव पार कर चुके तारा रंजन वकीलों के परिवार से ताल्लुक रखते हैं और अपने खानदानी पेशे को ही अपनाना चाहते थे, लेकिन ज़िदंगी उन्हें बिल्कुल अलग रास्ते पर ले गई. साल 1985 में उन्होंने फ़ाल्कन मरीन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की और पिछले 15 सालों से यह कंपनी देश की सबसे बड़ी समुद्री उत्पाद निर्यातक है.

तारा रंजन पटनायक ने मछली पकड़ने के जालदार जहाज़ के अपने पहले कारोबार में असफलता हाथ लगने के बाद साल 1985 में फ़ाल्कन मरीन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की. (सभी फ़ोटो - तिकान मिश्रा)

तारा मूल रूप से ओडिशा से ताल्लुक रखते हैं और वर्तमान में वहां 65 प्रतिशत से अधिक सी फूड के ख़रीदार हैं. अपने कारोबार के ज़रिये वे क़रीब 5000 लोगों को रोज़गार उपलब्ध करवा रहे हैं.

उनकी दोनों कंपनियों - पटनायक स्टील एंड एलॉयज़ लिमिटेड और फ़ाल्कन रीयल एस्टेट प्राइवेट लिमिटेड- का वित्त वर्ष 2016-17 में कुल टर्नओवर 1500 करोड़ रुपए था. उनका लक्ष्य अगले वित्तीय वर्ष में इसे 2000 करोड़ रुपए करने का है.

तारा रंजन पिछले 15 सालों से अपने कार्यक्षेत्र में देश के सबसे बड़े निर्यातक हैं और इसके लिए उन्हे एमपीईडीए (समुद्री उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण) सम्मानित भी कर चुका है.


उन्होंने अपनी कंपनी का नाम फ़ाल्कन (बाज़) इसलिए रखा क्योंकि उन्हें आसमान की ऊंचाइयों में उड़ने का विचार बेहद अच्छा लगता था, हालांकि उन्होंने ख़ुद कभी नहीं सोचा था कि उनकी कंपनी यह मुकाम हासिल करेगी.

14 मार्च, 1953 में ओडिशा के आनंदापुर सबडिविज़न, क्योंझर में जन्मे तारा रंजन आठ भाई-बहनों में चौथे स्थान पर आते थे. इनके पिता स्व. पदमानव पटनायक एक दीवानी वकील थे.

भुवनेश्वर स्थित अपनी कंपनी के मुख्यालय फ़ाल्कन हाउस में बैठे तारा रंजन बताते हैं, “घर का माहौल बिल्कुल वैसा ही था, जैसा किसी आम मध्यम वर्गीय परिवार में होता है. पिता निचली अदालत में वकील थे, लेकिन हमारी सभी मूलभूत ज़रूरतें पूरी होती थीं.”

उन्होंने साल 1954 में अपनी पढ़ाई आनंदापुर के एक सरकारी स्कूल से शुरू की. इसके बाद साल 1969 में कॉलेज की पढ़ाई करने भद्रक चले गए. वहां हॉस्टल में रहकर साइंस की पढ़ाई की. हालांकि एक साल के बाद ही बार-बार होने वाली हड़ताल और विद्यार्थियों के आंदोलन से तंग आकर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया.

इसके बाद वो क्योंझर लौट आए और साल 1970-71 में विज्ञान में ही अपनी पढ़ाई जारी रखी, हालांकि इस विषय में उनकी रुचि धीरे-धीरे समाप्त होती गई और उन्होंने दोबारा पढ़ाई छोड़ दी. साल 1972 में आगे की पढ़ाई के लिए कला संकाय का चुनाव किया और आनंदापुर कॉलेज, क्योंझर से स्नातक पूरा किया.

तारा रंजन ने क़ानून की पढ़ाई की, लेकिन दोस्त के उकसाने पर बिज़नेस में आ गए.


साल 1973 में वो कटक चले गए और वहां मधुसूदन लॉ कॉलेज में दाख़िला लिया. अपने चेहरे पर बिखरी हल्की मुस्कान के साथ वो बताते हैं कि “मैं हमेशा से वकील बनना चाहता था, क्योंकि मेरे परिवार में लगभग सभी इसी पेशे से ताल्लुक रखते थे... लेकिन क़िस्मत ने मेरे लिए दूसरी योजना बना रखी थी.”

वो ख़ुद को ‘संयोगवश बना व्यापारी’ कहने की वजह के बारे में बताते हैं कि उनके दोस्त और सहपाठी जे रहमत ने साल 1975 में उनकी ज़िंदगी की दिशा पूरी तरह बदल दी. उसने उन्हें मछली पकड़ने के जालदार जहाज़ (फ़िशिंग ट्रॉलर्स) ख़रीदने में निवेश करने को कहा.

व्यापार से जुड़ा अपना पहला अनुभव साझा करते हुए वो बताते हैं कि “मुझे उस वक्त कारोबार के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन उसने ज़ोर डाला कि यह कारोबार हम दोनों साथ करेंगे. इस पर मैं मान गया. हमने ओडिशा स्टेट फ़ाइनेंशियल कॉर्पाेरेशन से क़रीब 2 लाख रुपए का लोन लिया और तीन-चार ट्रालर्स ख़रीदे. हम दोनों इस कारोबार में बराबर के हिस्सेदार थे.”

उन्होंने इस काम के लिए 10 लोगों को रखा, जो समुद्र में जाकर मछली पकड़ते थे. कभी-कभार वो दोनों भी उन लोगों के साथ यह जानने के लिए समुद्र में जाते थे कि मछली किस तरह पकड़ी जाती है. यह काम अक्सर बेहद जोख़िम भरा हो जाता था, क्योंकि समुद्र की मनमौजी लहरें कई बार अचानक ही उपद्रवी हो जाती थीं.

तारा रंजन बताते हैं कि “वह कारोबार असफल हो गया, पर्याप्त जानकारी न होने के कारण हमें भारी नुकसान झेलना पड़ा. बैंक का लोन चुकाने के लिए हमें अपने ट्रॉलर्स बेचने पड़े. वह बहुत ही कठिन समय था...”

इसके बाद भी उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी. कारोबार के क्षेत्र में अपना नेटवर्क स्थापित किया और साल 1978 में उन्होंने अपने राज्य में काम कर रहीं बड़ी निर्यातक कंपनियों को झींगों की आपूर्ति करना शुरू दिया. 

वो स्पष्ट करते हैं, “मैं सीधे मछुआरों से झींगे ख़रीदता और उन्हें बड़े निर्यातकों को बेच देता था. चूंकि मुझे कारोबार में नुकसान उठाना पड़ा था, इसलिए मैंने अनुभव लिया कि पैसा कहां और कैसे कमाया जा सकता है.”

फ़ाल्कन की एक प्रोसेसिंग यूनिट में काम करते कर्मचारी.


अगले सात सालों तक उन्होंने निर्यातकों को झींगे बेचना जारी रखा और ऐसा करते हुए सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी झींगे के ख़रीदारों से संपर्क बढ़ाए.

साल 1985 में उन्होंने भुवनेश्वर में फ़ाल्कन मरीन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड की नींव रखी और धीरे-धीरे उनका बिज़नेस बढ़ने लगा. साल 1987-88 में उनकी कंपनी का सालाना कारोबार 4.66 करोड़ रुपए दर्ज किया गया.

उन्होंने बताया कि “हमने अपने प्रॉडक्ट्स की पैकेजिंग एक कंपनी से करवाई, लेकिन जल्द ही मैंने निश्चय किया कि मैं अपनी ख़ुद की प्रोसेसिंग यूनिट खोलूंगा.”

उनकी पहली प्रोसेसिंग यूनिट साल 1993 में भुवनेश्वर के मनचेस्वर में 15 एकड़ के प्लॉट में शुरू हुई और तारा रंजन ने इसमें 20 करोड़ रुपए लगाए. दूसरी प्रोसेसिंग यूनिट की नींव साल 1994 में पारादीप में 14 एकड़ जगह में रखी गई जिसमें 20 करोड़ रुपए निवेश किए गए. दोनों ही यूनिट्स के लिए उन्होंने लोन लिया, जो बाद में चुका दिया.

850 टन प्रतिवर्ष के निर्यात के साथ साल 1990-91 तक उनका सालाना कारोबार बढ़कर 12.5 करोड़ रुपए हो गया. पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए तारा रंजन बताते हैं, “कारोबार बहुत ही सुगमता से चल रहा था, हमारे अधिकतर ख़रीदार विदेशों, ख़ासकर अमेरिका के थे, लेकिन साल 1999 में राज्य में आए चक्रवात के बाद वक्त ने एक बार फिर करवट ली और चीज़ें मुश्किल होने लगी. पारादीप फ़ैक्ट्री में रखा सारा सामान जलमग्न हो गया और हमें 2 करोड़ रुपए का नुकसान झेलना पड़ा, वहीं मनचेस्वर प्लांट में नुकसान का आंकड़ा क़रीब 60-70 लाख रुपए था.” 

तारा ने किसी तरह सब कुछ ठीक किया और कंपनी को नुकसान से उबारा. वे बताते हैं कि “हमने इससे कई सबक़ लिए और नई रणनीति के साथ दोबारा तैयार हो गए, हमने छोटे किसानों को झींगा-पालन के लिए प्रेरित किया. उन्हें कच्चा माल व तकनीकी मदद मुहैया करवाई और उसके बाद जो उन्होंने पैदा किया वो हमने उनसे ख़रीद लिया.”

तारा रंजन का ध्यान अब समूह का टर्नओवर 2,000 करोड़ रुपए हासिल करने पर है.


तारा रंजन बताते हैं कि “किसानों ने ज़मीन के छोटे हिस्से पर काम शुरू करते हुए हमारी कंपनी को आपूर्ति लगातार जारी रखी. हमने भी इस बात का पूरा ध्यान रखा कि किसान आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से मज़बूत हो जाएं. अभी हमारे साथ 5000 से अधिक किसान साथ हैं.”

साल 2000-01 में कंपनी का सालाना कारोबार 157 करोड़ रुपए को पार कर गया और प्रतिवर्ष निर्यात किए जाने वाले सी फूड की मात्रा 3,100 टन हो गई.

साल 2006 में, उनकी कंपनी ने स्टील बिज़नेस के क्षेत्र में क़दम रखा और पटनायक स्टील ऐंड एलॉयज़ लिमिटेड की शुरुआत की. कंपनी के पास जोरा, ओडिशा में अपना एक स्टील प्लांट भी है, जो क़रीब 120 एकड़ में फैला हुआ है. यह प्लांट 200 करोड़ के निवेश के साथ शुरू किया गया.

साल 2008 में लंदन से एमबीए किए उनके बेटे पार्थाजीत पटनायक भी पिता के कारोबार से जुड़ गए. उसी साल उनकी कंपनी ने रियल एस्टेट के क्षेत्र में क़दम रखा और फ़ॉल्कन रियल एस्टेट प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की. 

भुवनेश्वर और उसके इर्द-गिर्द के इलाक़ों में कंपनी के पास क़रीब 300 एकड़ ज़मीन है. इसमें 45 करोड़ रुपए के निवेश से 120 अपार्टमेंट बनाए गए.

अपने बेटे पार्थाजीत पटनायक और बहू प्रियंका मोहंती के साथ तारा रंजन. 


पार्थाजीत बताते हैं कि “हम तीन कंपनियां चला रहे थे, लेकिन हमारा ध्यान हमेशा सी फूड पर अधिक रहा. हम इसमें झींगे के अलावा और भी वस्तुएं जोड़ना चाहते हैं.कंपनी से जुड़ी अपनी सोच बताते हुए वो कहते हैं कि “हम एशिया के सबसे बड़े सी फूड निर्यातक बनना चाहते हैं.”

कारोबार में बेटे के आने के बाद तारा रंजन अब अपने लिए कुछ वक्त निकालना चाहते हैं. इस कारोबार को खड़ा करने और उसे आगे बढ़ाने में उन्होंने कई साल गुज़ार दिए, इसलिए अब उनकी इच्छा है कि वे अपना वक्त घर पर बिताएं.  

सफलता के लिए तारा रंजन पटनायक का गुरु मंत्र बताते हैं- ईमानदारी और समर्पण के साथ कड़ी मेहनत करो. यही वो आसान तरीक़ा है जो उन्हें सफलता के शिखर पर ले गया.


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • From roadside food stall to restaurant chain owner

    ठेला लगाने वाला बना करोड़पति

    वो भी दिन थे जब सुरेश चिन्नासामी अपने पिता के ठेले पर खाना बनाने में मदद करते और बर्तन साफ़ करते. लेकिन यह पढ़ाई और महत्वाकांक्षा की ताकत ही थी, जिसके बलबूते वो क्रूज पर कुक बने, उन्होंने कैरिबियन की फ़ाइव स्टार होटलों में भी काम किया. आज वो रेस्तरां चेन के मालिक हैं. चेन्नई से पीसी विनोज कुमार की रिपोर्ट
  • Bijay Kumar Sahoo success story

    देश के 50 सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में इनका भी स्कूल

    बिजय कुमार साहू ने शिक्षा हासिल करने के लिए मेहनत की और हर महीने चार से पांच लाख कमाने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट बने. उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझा और एक विश्व स्तरीय स्कूल की स्थापना की. भुबनेश्वर से गुरविंदर सिंह की रिपोर्ट
  • Just Jute story of Saurav Modi

    ये मोदी ‘जूट करोड़पति’ हैं

    एक वक्त था जब सौरव मोदी के पास लाखों के ऑर्डर थे और उनके सभी कर्मचारी हड़ताल पर चले गए. लेकिन उन्होंने पत्नी की मदद से दोबारा बिज़नेस में नई जान डाली. बेंगलुरु से उषा प्रसाद बता रही हैं सौरव मोदी की कहानी जिन्होंने मेहनत और समझ-बूझ से जूट का करोड़ों का बिज़नेस खड़ा किया.
  • Sid’s Farm

    दूध के देवदूत

    हैदराबाद के किशोर इंदुकुरी ने शानदार पढ़ाई कर शानदार कॅरियर बनाया, अच्छी-खासी नौकरी की, लेकिन अमेरिका में उनका मन नहीं लगा. कुछ मनमाफिक काम करने की तलाश में भारत लौट आए. यहां भी कई काम आजमाए. आखिर दुग्ध उत्पादन में उनका काम चल निकला और 1 करोड़ रुपए के निवेश से उन्होंने काम बढ़ाया. आज उनके प्लांट से रोज 20 हजार लीटर दूध विभिन्न घरों में पहुंचता है. उनके संघर्ष की कहानी बता रही हैं सोफिया दानिश खान
  • Namarata Rupani's story

    डॉक्टर भी, फोटोग्राफर भी

    क्या कभी डाॅक्टर जैसे गंभीर पेशे वाला व्यक्ति सफल फोटोग्राफर भी हो सकता है? हैदराबाद की नम्रता रुपाणी इस अटकल को सही साबित करती हैं. उन्हाेंने दंत चिकित्सक के रूप में अपना करियर शुरू किया था, लेकिन एक बार तबियत खराब होने के बाद वे शौकिया तौर पर फोटोग्राफी करने लगीं. आज वे दोनों पेशों के बीच संतुलन बनाते हुए 65 लाख रुपए सालाना कमा लेती हैं. बता रहे हैं गुरविंदर सिंह...