5,000 रुपए निवेश कर मेन्यू में अवधी बिरयानी को जोड़ा तो परिवार का छोटा भोजनालय 15 करोड़ रुपए टर्नओवर वाला रेस्तरां चेन बन गया
24-Aug-2025
By पार्थो बर्मन
कोलकाता
कोलकाता के बैरकपुर में व्यस्त 'दादा बाउदी' रेस्तरां के भीतर जैसे ही आप प्रवेश करते हैं, अवधी बिरयानी की जानी-पहचानी महक का झोंका हवा में तैरता महसूस होता है.
बिरयानी चाहने वालों के लिए यह आउटलेट 80 के दशक के अंतिम सालों से मशहूर है, जब किशोरावस्था में रहे संजीब साहा और राजीब साहा भाइयों ने 200 वर्ग फुट के पारिवारिक भोजनालय में मुंह में पानी लाने वाली इस डिश से परिचित कराया था. यह भोजनालय उनके दादाजी ने 1961 में शुरू किया था.

संजीब साहा (दाएं) और राजीब साहा ने दादा बाउदी में 1986 में बिरयानी परोसना शुरू की थी. इसके बाद उनका बिजनेस बढ़ने लगा. (सभी फोटो : विशेष व्यवस्था से/टी.डब्ल्यू.एल.)
|
1986 में अपने आउटलेट पर बिरयानी बेचना शुरू करने के बाद शुरू हुई दादा बाउदी की यात्रा के बारे में राजीब कहते हैं, “हमने बिजनेस में 5,000 रुपए का निवेश किया और बिरयानी बनाने के लिए कुछ बर्तन खरीदे. इसके साथ ही कुछ किलो बासमती चावल और मीट भी लाए. शुरुआत में हम रोज तीन किलोग्राम मटन बिरयानी बनाते थे.”
आज, उनके तीन आउटलेट हैं. भोजन के समय सभी में भारी भीड़ उमड़ती है. वे रोज 700 किलोग्राम बिरयानी बेचते हैं. मटन बिरयानी की कीमत 260 रुपए प्रति प्लेट और चिकन बिरयानी की कीमत 200 रुपए प्रति प्लेट है.
दादा बाउदी का सालाना टर्नओवर अब 15 करोड़ रुपए को छू चुका है और साल-दर-साल बढ़ रहा है.
उनके ग्राहकों में भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान और बी.सी.सी.आई. अध्यक्ष सौरव गांगुली समेत कई सेलीब्रिटी शामिल हैं. दो साल पहले तत्कालीन अमेरिकी कांसुलेट जनरल, कोलकाता क्रैग एल. हॉल भी अपने परिवार और अमेरिकी सीनेटर जैमी ड्रेगन के साथ उनके आउटलेट पर आए थे.
दादा बाउदी की सफलता दोनों भाइयों की कड़ी मेहनत का नतीजा है. वे पारिवारिक बिजनेस को नई ऊंचाई पर ले गए, जो उनके दादा और पिता भी हासिल नहीं कर पाए थे.
संजीब ने जहां कक्षा 12वीं की पढ़ाई पूरी की, वहीं उनके भाई राजीब 10वीं के आगे नहीं पढ़ पाए. लेकिन दोनों भाइयों ने यह सुनिश्चित किया कि वे जो बिरयानी बना रहे हैं, वह अच्छी गुणवत्ता की हो और सभी मानक पूरे करती हो, ताकि ग्राहक एक बार खाकर उनके पास फिर लौटे.
बिरयानी की हर प्लेट में 800 ग्राम चावल की बिरयानी होती है. इसमें 200 ग्राम मटन (या चिकन) और आलू होते हैं. यह अवधी बिरयानी की विशिष्टता है.

तत्कालीन अमेरिकी काउंसुलेट जनरल, कोलकाता क्रैग एल. हॉल अपने परिवार के साथ दादा बाउदी आउटलेट पर. |
राजीब कहते हैं कि जब उन्होंने शुरुआत की थी, तो 11 रुपए प्रति प्लेट मटन बिरयानी बेचते थे. लेकिन मीट और अन्य सामान की कीमतें लगातार बढ़ती रही, इसलिए उन्हें समय-समय पर कीमतें भी बढ़ानी पड़ीं.
दिलचस्प बात यह है कि बैरकपुर रेलवे स्टेशन के पास घोष पारा रोड पर पहला भोजनालय 1961 में शुरू हुआ था. यह उनके दादा रामप्रसाद ने शुरू किया था, जो अपनी पत्नी और छह बच्चों के साथ बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मोतिहारी से कोलकाता आ गए थे.
इस भोजनालय का कई साल तक नाम ही नहीं रहा. वहां शुरुआत में बस दाल-रोटी और सब्जी परोसी जाती थी.
लेकिन करीब 15 साल बाद, रामप्रसाद के बेटे धीरेन साहा ने भोजनालय का जिम्मा संभाला और उन्होंने मेन्यू को विस्तार दिया. उन्होंने चावल से लेकर फिश करी, चिकन और फिर रेड मीट करी जैसी डिश जोड़ी.
समय के साथ धीरेन की पत्नी संध्या भी पति का हाथ बंटाने लगीं. लोग दोनों को दादा बाउदी पुकारने लगे. (बंगाली भाषा में दादा का मतलब भाई और बाउदी का मतलब पत्नी होता है.) भोजनालय जल्द ही दादा बाउदी के नाम से पहचाना जाने लगा.
धीरेन और संध्या दो कर्मचारियों के साथ भाेजनालय संभालते थे. उनके स्कूल में पढ़ रहे बच्चे संजीब और राजीब स्कूल के बाद उनकी मदद करते थे.
संध्या याद करती हैं, “वे बहुत मुश्किल दिन थे. हम भोजन का स्वाद बनाए रखने के लिए मसालों को हाथों से पत्थर पर पीसते थे. मेरे दोनों बेटे काम में मदद करते थे.”
राजीब कहते हैं, “हम भोजन परोसते थे, टेबल साफ करते थे और प्लेटें धोते थे. हम महसूस करते थे कि माता-पिता की मदद करना हमारी जिम्मेदारी है. हमें ऐसा काम करने में कभी शर्म महसूस नहीं हुई.”
संजीब याद करते हैं कि वे ग्राहकों को रात 11 बजे तक खाना परोसते थे और इससे उनकी पढ़ाई प्रभावित होती थी. वे कहते हैं, “तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने अपनी बुनियादी शिक्षा पूरी की. हम बैरकपुर के देबी प्रसाद हायर सेकंडरी स्कूल गए. मैंने 1987 में कक्षा 12 की पढ़ाई पूरी की, जबकि राजीब कक्षा 10 के बाद पढ़ाई जारी नहीं रख सके.”
दादा बाउदी की बिरयानी ने सालों से अपना जायका एक समान बनाए रखा है. इसका श्रेय सलीम खान को जाता है, जो उनके मुख्य खानसामा हैं. सलीम खान तबसे किचन संभाल रहे हैं, जब बिरयानी लॉन्च की गई थी.

दादा बाउदी के एक भोजनालय के बाहर उमड़ी भीड़. |
सलीम खान के मार्गदर्शन में रोज 15-20 बड़े बर्तनों में बिरयानी तैयार की जाती है. मटन, चिकन और वेजीटेबल बिरयानी के अलावा, कई अन्य भारतीय, चाइनीज और मुगलई भोजन भी बनाया जाता है. इसमें तंदूरी आइटम भी शामिल हैं.
साहा बंधुओं ने अपना दूसरा आउटलेट बैरकपुर में पांच साल पहले शुरू किया. जबकि सोदपुर आउटलेट जुलाई 2019 में शुरू किया. उनके पास कुल 35 लोगों का स्टाफ है.
साहा परिवार बैरकपुर में श्यामास्री पल्ली में रहता है. वहां से रेस्तरां 10 मिनट की दूरी पर है. दोनों भाई आज आनंदित, आरामदायक और संतुष्ट जीवन जी रहे हैं.
संजीब को घूमना पसंद है. वे अधिकांश यूरोपीय और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में जा चुके हैं. जबकि राजीब को पालतू जानवर पसंद हैं. उनके पास अच्छी नस्ल के कई डॉग और एक प्रकार के ताेते कोकाटू समेत बहुत सारे पक्षी हैं. उनके घर पर अद्भुत एक्वेरियम भी है.
दोनों शादीशुदा हैं. दोनों के बच्चे भी हैं. संजीब को एक बेटा और बेटी हैं, जबकि राजीब को एक बेटी है.
आप इन्हें भी पसंद करेंगे
-
सफलता बुनने वाले भाई
खालिद रजा खान ने कॉलेज में पढ़ाई करते हुए ऑनलाइन स्टोर योरलिबास डाॅट कॉम शुरू किया. शुरुआत में काफी दिक्कतें आईं. लोगों ने सूट लौटाए भी, लेकिन धीरे-धीरे बिजनेस रफ्तार पकड़ने लगा. छोटे भाई अकरम ने भी हाथ बंटाया. छह साल में यह बिजनेस 14 करोड़ रुपए टर्नओवर वाली कंपनी बन गया है. इसकी यूएई में भी ब्रांच है. बता रही हैं उषा प्रसाद. -
रेस्तरां के राजा
गुवाहाटी के देबा कुमार बर्मन और प्रणामिका ने आज से 30 साल पहले कॉलेज की पढ़ाई के दौरान लव मैरिज की और नई जिंदगी शुरू की. सामने आजीविका चलाने की चुनौतियां थीं. ऐसे में टीवी क्षेत्र में सीरियल बनाने से लेकर फर्नीचर के बिजनेस भी किए, लेकिन सफलता रेस्तरां के बिजनेस में मिली. आज उनके पास 21 रेस्तरां हैं, जिनका टर्नओवर 6 करोड़ रुपए है. इस जोड़े ने कैसे संघर्ष किया, बता रही हैं सोफिया दानिश खान -
पर्यावरण हितैषी उद्ममी
बिहार से काम की तलाश में आए जय ने दिल्ली की कूड़े-करकट की समस्या में कारोबारी संभावनाएं तलाशीं और 750 रुपए में साइकिल ख़रीद कर निकल गए कूड़ा-करकट और कबाड़ इकट्ठा करने. अब वो जैविक कचरे से खाद बना रहे हैं, तो प्लास्टिक को रिसाइकिल कर पर्यावरण सहेज रहे हैं. आज उनसे 12,000 लोग जुड़े हैं. वो दिल्ली के 20 फ़ीसदी कचरे का निपटान करते हैं. सोफिया दानिश खान आपको बता रही हैं सफाई सेना की सफलता का मंत्र. -
ममता बनर्जी भी इनकी साड़ियों की मुरीद
बीरेन कुमार बसक अपने कंधों पर गट्ठर उठाए कोलकाता की गलियों में घर-घर जाकर साड़ियां बेचा करते थे. आज वो साड़ियों के सफल कारोबारी हैं, उनके ग्राहकों की सूची में कई बड़ी हस्तियां भी हैं और उनका सालाना कारोबार 50 करोड़ रुपए का आंकड़ा पार कर चुका है. जी सिंह के शब्दों में पढ़िए इनकी सफलता की कहानी. -
स्मूदी सम्राट
हैदराबाद के सम्राट रेड्डी ने इंजीनियरिंग के बाद आईटी कंपनी इंफोसिस में नौकरी तो की, लेकिन वे खुद का बिजनेस करना चाहते थे. महज एक साल बाद ही नौकरी छोड़ दी. वे कहते हैं, “मुझे पता था कि अगर मैंने अभी ऐसा नहीं किया, तो कभी नहीं कर पाऊंगा.” इसके बाद एक करोड़ रुपए के निवेश से एक स्मूदी आउटलेट से शुरुआत कर पांच साल में 110 आउटलेट की चेन बना दी. अब उनकी योजना अगले 10 महीने में इन्हें बढ़ाकर 250 करने की है. सम्राट का संघर्ष बता रही हैं सोफिया दानिश खान