कबाड़ को बनाया कारोबार का ज़रिया, पर्यावरण संरक्षण के साथ कमा रहे भरपूर
07-Dec-2024
By सोफिया दानिश खान
नई दिल्ली
वर्ष 1995 में ख़ुद का बिज़नेस शुरू करने के लिए उन्होंने 750 रुपए में साइकिल ख़रीदी थी. यही उनका एकमात्र निवेश था. आज उनके संगठन का टर्नओवर 11 लाख रुपए प्रति महीने है. यही नहीं, उनका काम उनकी कमाई से अधिक महत्वपूर्ण है.
ये हैं दिल्ली के जय प्रकाश चौधरी, जिन्हें साथी प्यार से संतु सर भी पुकारते हैं. जय कुछ उन क्रांतिकारी लोगों में से हैं, जो मानते हैं कि दुनिया को थोड़ा-थोड़ा करके बदला जा सकता है.
सफाई सेना क़रीब 12,000 कबाड़ वालों से जुड़ी है. जय प्रकाश चौधरी की कंपनी कूड़ा-करकट ख़रीदती है. उन्हें छांटती है और उसे रिसाइकिल कंपनियों को बेच देती है. (फ़ोटो - नवनिता)
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पिछले 24 साल से दिल्ली में रहकर जय प्रकाश पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए अद्भुत काम कर रहे हैं. साथ ही साथ बेहतर कमाई भी कर रहे हैं.
42 वर्षीय जय ‘सफाई सेना’ का संचालन करते हैं. यह घरों-दफ्तरों से निकले कूड़ा-करकट व कबाड़ इकट्ठा करने वालों का संगठन है. यह कचरे को छांटता है, बेचता और रिसाइकिल करता है.
सफाई सेना मुख्य डंपिंग साइट्स से इकट्ठा करती है. प्लास्टिक कचरे को रिसाइकिल फ़ैक्टरियों को भेजती है, जबकि जैविक कचरे को खाद में तब्दील कर बेच देती है.
18 मार्च 1976 को बिहार के मुंगेर में जन्मे जय पांच बेटों में सबसे बड़े हैं. उनका बचपन सरकारी स्कूल में पढ़ाई करते हुए बीता.
जय कहते हैं, ‘‘जब मैंने 10वीं पास की, तब लगा कि मेरे किसान पिता मेरी शिक्षा के साथ इतने बड़े परिवार का ख़र्च उठाने में सक्षम नहीं हैं. इसलिए मैंने बाहर जाकर काम करना तय किया. मां ने विरोध किया, लेकिन मैं जानता था कि मुझे परिवार के लिए अतिरिक्त आय जुटाना होगी.’’
जय अपने दोस्त रवि के साथ मुंगेर से दिल्ली आ गए. वो गांव के ही एक व्यक्ति को जानते थे, जो दिल्ली के कनॉट प्लेस में काम करता था. उसकी दुकान की कोई जानकारी न होने से दोनों को मशहूर कॉटेज एंपोरियम खोजने में तीन दिन लग गए. इन तीन दिनों में पैसे न होने से दोनों भूखे ही रहे.
जय ने क़रीब 70 लोगों को रोज़गार दे रखा है. इन लोगों के बच्चों को एक एन.जी.ओ. चिंतन निशुल्क शिक्षा उपलब्ध करवाता है.
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इस दौरान कनॉट प्लेस में दोनों की पहचान एक वेंडर से हुई, जो मेहंदी लगाने का काम करता था. वह हनुमान मंदिर के सामने दाईं तरफ़ बैठता था. उसने दोनों को भोजन और छत मुहैया करवाई. उसी इलाक़े में फ्रुट चाट बेचने वाले एक व्यक्ति ने जय को 20 रुपए रोज़ में सहायक के तौर पर रख लिया.
इस तरह वर्ष 1994 में जय की दिल्ली यात्रा शुरू हुई. वो सुबह 9 से रात 9 बजे तक चाट स्टाल पर काम करते, फिर तीन से चार घंटे तक एंपोरियम में निर्माण कार्य में मदद कर पैसे कमाते. वो बमुश्किल सो पाते थे.
हालांकि तीन महीने में उनकी उम्मीद टूट गई और वो गांव लौट गए, क्योंकि बहुत मेहनत करने के बाद भी पर्याप्त नहीं कमा पा रहे थे. जय कहते हैं, ‘‘हालांकि मैं नए संकल्प के साथ एक माह में ही दिल्ली लौट आया कि इस बार कुछ अच्छा करूंगा. एक दोस्त के ज़रिये मेरी मुलाक़ात गोल मार्केट में राजा बाज़ार स्थित एक कबाड़ी गोडाउन के मालिक से हुई और उसके लिए काम करने लगा.’’
अब दिन में जय कबाड़ इकट्ठा करते और रात में वॉचमैन के रूप में काम कर 3,000 रुपए महीना कमाते.
जय ने ख़ुद का काम शुरू करने के लिए छह महीनों में दो नौकरियां बदलीं. जब वो कबाड़ के काम के महत्वपूर्ण पहलू समझ गए, तो उन्होंने इस काम में अकेले कूदने का निर्णय लिया. इसके कई कारण थे.
जय स्पष्ट करते हैं, ‘‘सबसे पहला तो मेरे पास बिल्कुल पैसे नहीं थे और इस काम में कोई निवेश करने की ज़रूरत नहीं थी. दूसरा, इस काम में किसी विभाग से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं थी. मैं बिना देर किए काम शुरू कर सकता था.’’
जय ने थोड़ी सी बचत से एक साइकिल ख़रीदी और घर-घर से कबाड़ इकट्ठा करना शुरू कर दिया. उन्हें धातु के कबाड़ से अच्छी कमाई होती. धीरे-धीरे उनकी कमाई बढ़कर 150 रुपए प्रतिदिन हो गई. जल्द ही उन्हें चार दोस्तों का साथ मिला और उन्होंने राजा बाज़ार में ख़ुद का गोडाउन शुरू कर दिया.
जय स्पष्ट करते हैं, ‘‘चारों साझेदार चार दिशाओं में जाते, कबाड़ इकट्ठा करते थे. आखिर में उसे इकट्ठा कर बेच दिया जाता. देखते ही देखते हम एक कंपनी के रूप में बड़े हो रहे थे और मुनाफ़ा भी इसी तरह बढ़ रहा था.’’
हालांकि जय के लिए जीवन फूलों की सेज नहीं रहा. वर्ष 1996-97 में दिल्ली म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के लगातार दखल के कारण उनके कारोबार पर असर पड़ा. उसी समय पुलिस ने भी उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया. दोनों उन्हें शांतिपूर्वक काम करने देने के लिए रिश्वत मांग रहे थे.
अनुमान है कि रिसाइकिल के जरिये जय की कंपनी ने 9,62,133 मीट्रिक टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया.
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लेकिन सब चीज़ें तब बदल गईं, जब वर्ष 1999 में वो भारती चतुर्वेदी के संपर्क में आए. वो चिंतन नामक एक एन.जी.ओ. चलाती थीं. भारती उस समय कूड़ेवालों पर एक सर्वे कर रही थीं. जय कहते हैं, भारती उनकी गुरु, मार्गदर्शक, आदर्श सब बन गईं.
जय कहते हैं, ‘‘उन्होंने हमारी दिशा और दशा दोनों बदल दी.’’
चिंतन का सर्वे पर्यावरण की मदद करने और दिल्ली से प्लास्टिक हटाने में कूड़ा व कबाड़ वालों की भूमिका पर केंद्रित था.
वर्ष 1999 में, चिंतन ने वर्कशॉप शुरू की. इसमें इस काम से जुड़े लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाता था. यह भी बताया जाता था कि अधिक पैसे कैसे कमाए जाएं और सरकारी विभागों से कैसे निपटा जाए.
जय के लिए बड़ा पल वर्ष 2009 में आया, जब उन्होंने जे.पी. इंजीनियरिंग नाम से ख़ुद की कंपनी रजिस्टर करवाई. इसमें वो अकेले मालिक थे.
आज दिल्ली और गाजियाबाद में 12,000 से अधिक सदस्यों के साथ उनका प्रभाव ज़बर्दस्त है. कूड़ा इकट्ठा करने वाले स्थानीय लोग, गोडाउन के मालिक, व्यापारी और रिसाइकिल कंपनियां सभी सफाई सेना की सदस्य हैं.
ये कचरे को जय की कंपनी के भोपुरा, गाजियाबाद स्थित मुख्य गोडाउन लाते हैं, जहां 70 कर्मचारी कचरा छांटते हैं. इसके बाद रिसाइकिल कंपनियों को बेच दिया जाता है. अल मेहताब उनकी आधिकारिक रिसाइकिल कंपनी है, जहां टनों से प्लास्टिक कचरा रिसाइकिल होता है.
जय की कंपनी और चिंतन महिला सशक्तीकरण की दिशा में भी काम कर रहे हैं. उनकी 40 फीसदी कर्मचारी महिलाएं हैं. कर्मचारियों के बच्चों को चिंतन नि:शुल्क शिक्षा देता है. वह यह भी सुनिश्चित करता है कि ये बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए अच्छे स्कूलों में एडमिशन लें.
दिल्ली नगर निगम अपना कूड़ा भराव क्षेत्र में डालता है, जहां बहुत बदबू आती है. जय कहते हैं, ‘‘यदि हम ज़ीरो वेस्ट पॉलिसी का पालन करें तो ऐसे भराव क्षेत्रों की ज़रूरत ही नहीं पड़े. मेरे पास एक कारगर योजना है. इसमें हर घर में कंपोस्ट पिट बनाकर कचरे का निस्तारण किया जा सकता है. यहां से निकली खाद पौधों में डाली जा सकती है और अन्य कचरे को रिसाइकिल प्लांट भेजा जा सकता है.’’
जे.पी. एक टन कचरे से 150 किग्रा खाद बनाता है, जो ज़रूरतमंद दफ्तरों और घरों को बेच दी जाती है. जय फिलहाल दिल्ली के महज 20 प्रतिशत कचरे से निपट पा रहे हैं. हालांकि वो 9,62,133 मीट्रिक टन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर चुके हैं.
इस पूरी प्रक्रिया से कंपनी को हर महीने 11 लाख रुपए की आमदनी होती है. जय स्पष्ट करते हैं, ‘‘यह सिर्फ़ मेरा मुनाफ़ा ही नहीं है. इस राशि का उपयोग वेतन, किराया व बिलों का भुगतान करने में किया जाता है.’’
उनका वेतन 40,000 रुपए है और कंपनी अब तक ‘बिना नफ़ा-नुकसान’ के चल रही है.
जैविक कचरे से बनी खाद बाज़ार में बेची जाती है.
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वर्तमान में वह और चिंतन के सदस्य स्कूलों व रेसिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन (आर.डब्ल्यू.ए.) में जीने के ज़ीरो वेस्ट तरीक़े का प्रचार-प्रसार करते हैं और बताते हैं कि घर पर कूड़े-करकट की खाद बनाना किस तरह संभव है.
जय स्वप्नदर्शी हैं और प्लास्टिक मुक्त भविष्य के लिए उनके पास कई कारगर आइडिया हैं. फिलहाल मयूर विहार के पास कोटला में रहने वाले जय के पास अपने पैतृक गांव के लिए बड़ी योजना है. वो वहां स्कूल, कॉलेज बनाना चाहते हैं और मुफ्त शिक्षा देना चाहते हैं. उनका 9 साल का बेटा और 11 साल की बेटी है. दोनों दिल्ली के अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं.
16-17 घंटे काम करने के बाद दिन के आखिर में जय के चेहरे पर मुस्कान सिर्फ़ यह बताती है कि वो पर्यावरण को साफ-स्वच्छ रखने के अपने मिशन के प्रति कितने समर्पित हैं.
उन्हें सिर्फ़ एक चीज़ परेशान करती है. जय कहते हैं, ‘‘लोग हमारा सम्मान नहीं करते हैं. वो हमारे काम की तारीफ़ कर सकते हैं, लेकिन कोई भी योगदान नहीं देना चाहता. मैं चाहता हूं कि लोग हमें इज्ज़त दें क्योंकि हम यह काम पैसों के लिए नहीं, बल्कि पर्यावरण की खातिर कर रहे हैं.’’
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