Milky Mist

Friday, 11 July 2025

इस युगल ने बच्चों में रोबोटिक्स की नींव डालकर 7 करोड़ ब्रांड वैल्यू वाली कंपनी बनाई

11-Jul-2025 By सबरिना राजन
चेन्नई

Posted 13 Jan 2020

रोबोटिक्‍स के साझा जुनून ने दो इंजीनियरिंग स्‍टूडेंट्स स्‍नेहा प्रकाश और एस प्रणवन को न सिर्फ स्‍थायी रोमांटिक संबंध में बांध दिया, बल्कि इससे एक बिजनेस पार्टनरशिप की भी शुरुआत हुई. दोनों ने मिलकर एसपी रोबोटिक वर्क्‍स कंपनी लॉन्‍च की. यह ब्रांड आज 7 करोड़ रुपए से अधिक का राजस्‍व इकट्ठा कर रहा है.

30 वर्षीय प्रणवन कहते हैं, ‘‘हमने भारत के करीब 50,000 लोगों के जीवन को छुआ है. हम चाहते हैं कि हमारे बच्‍चे टेक्‍नोलॉजी का इस्‍तेमाल करने वाले बनकर न रह जाएं, बल्कि इनोवेटर बनें.’’ प्रणवन के देशभर के 75 शहरों में सशक्‍त सेंटर हैं. वर्तमान में वे छह से 17 साल की उम्रवर्ग के 12,000 बच्‍चों को प्रशिक्षण दे रहे हैं.

स्‍नेहा प्रिया और प्रणवन जब चेन्‍नई में इंजीनियरिंग स्‍टूडेंट थे, तब दोनों ने मिलकर एसपी रोबोटिक्‍स की शुरुआत की थी. (सभी फोटो – रवि कुमार)

प्रणवन की स्‍नेहा प्रिया से पहली मुलाकात कॉलेज जाने वाली बस में हुई थी. तब वे दोनों चेन्‍नई के गिंडी स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज में इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स इंजीनियरिंग कोर्स के दूसरे सेमेस्‍टर में थे.

उस समय, प्रणवन इंटर-कॉलेज रोबोटिक्‍स कॉम्‍पीटिशंस में मैनुअल रोबोट्स के साथ हिस्‍सा ले रहे थे और प्रिया ऑटोनोमस रोबोट पर काम कर रही थीं. इसके बाद दोनों ने पार्टनरशिप कर ली और कॉम्‍पीटिशंस में हिस्‍सा लेने लगे. प्रणवन मेकेनिकल और इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स का काम संभालते तो प्रिया प्रोग्रामिंग किया करती.

पहले साल वे कोई कॉम्‍पीटिशन नहीं जीते. इस बीच वर्ष 2012 में दोनों ने शादी कर ली और एसपी रोबोटिक्‍स वर्क्‍स (एसपी दोनों के नाम का पहला अक्षर था) की स्‍थापना की. इसके बाद दोनों ने रोबोटिक्‍स में अपनी दक्षता का इस्‍तेमाल करते हुए तेजी से छलांग लगाई और इसे सफल बिजनेस वेंचर में तब्‍दील कर दिया.

जब इन्‍हें महसूस हुआ कि मार्केट में कंपोनेंट बहुत सीमित हैं और विश्‍वसनीय नहीं हैं, तब दोनों ने चेन्‍नई के होलसेल इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स मार्केट रिट्ची स्‍ट्रीट से अपनी पसंद का सामान चुना. इस तरह दोनों ने अपने खुद के कंपोनेंट और सर्किट बोर्ड तैयार किए.

एक रोबोट बनाने में 10,000 रुपए की लागत आती थी. महज 29 साल की प्रिया याद करती हैं, ‘‘हमें अलग-अलग कॉम्‍पीटिशंस के लिए अलग-अलग रोबोट बनाने होते थे.’’ दूसरे साल से उन्‍होंने जिस भी कॉम्‍पीटिशन में हिस्‍सा लिया, उसे जीता.

प्रणवन के डिजाइन और कल्‍पनाशीलता के जबर्दस्‍त अनुभव से उन्‍हें अपना सर्किट बोर्ड बनाने में मदद मिली. उन्‍होंने लागत घटाने के लिए असेंबल्‍ड रोबोट के पुर्जों की रिसाइकिलिंग भी शुरू कर दी.

दोनों ने मिलकर वर्ष 2010 में एसपी रोबोटिक की शुरुआत की. इस फ्री वेबसाइट पर रोबोटिक कंपोनेंट और सर्किट बोर्ड बेचे जाते थे. कॉलेज के तीसरे साल में दोनों कॉम्‍पीटिशन और रोबोटिक कंपोनेंट बिजनेस से एक लाख रुपए प्रति महीना से अधिक कमा रहे थे.

एसपी रोबोटिक्‍स के जरिये करीब 12,000 छात्र-छात्राएं रोबोटिक्‍स सीख रहे हैं.

दोनों ने इनाम में मिली राशि को फिर बिजनेस में निवेश किया, जो 10,000 से एक लाख रुपए के बीच थी. यह कॉलेज और स्‍पर्धा के प्रकार पर निर्भर था. जल्‍द ही उनके काम की चर्चा होने लगी. स्‍टूडेंट्स उनके तैयार किए कंपोनेंट की पूछताछ करने आने लगे.

प्रणवन कहते हैं, ‘‘जब मेरी उद्यमी  भावना हिलोरे मारने लगी, तो डिग्री पूरी करने में मेरी दिलचस्‍पी नहीं रही.’’ स्‍टूडेंट्स को सिखाने के अलावा प्रणवन ने कॉलेज जाने के बजाय स्‍पर्धाओं और सेमिनार में हिस्‍सा लेने में अधिक दिलचस्‍पी लेनी शुरू कर दी.

प्रणवन याद करते हैं, ‘‘चौथे साल तक हम इंडस्ट्रियल प्रोजेक्‍ट करने लगे थे और अन्‍ना यूनिवर्सिटी के स्‍टूडेंट्स को रोबोटिक्‍स का प्रशिक्षण भी दे रहे थे. रोबोटिक किट की लागत 2,500 रुपए से 3,000 रुपए थी और हम उनसे सिर्फ किट का शुल्‍क लेते थे. हम उन्‍हें कॉन्‍सेप्‍ट समझाते थे और बताते थे कि यह किस तरह काम करता है.’’

हालांकि, उन्‍हें अहसास हुआ कि छात्र अंतिम वर्ष में रोबोटिक्‍स छोड़ देते हैं और प्‍लेसमेंट और कैरियर प्‍लान पर ध्‍यान देते हैं. इसलिए दोनों ने नई योजना पर काम किया. प्रिया कहती हैं, ‘‘हमने तय किया कि हम युवा ग्रुप के साथ काम करेंगे. यह ऐसा आयु वर्ग था, जो रोबोटिक्‍स को आजीविका की संभावना के रूप में  भविष्‍य के साइंस के तौर पर स्‍वीकार कर सकता था.’’

इस तरह एसपी रोबोटिक वर्क्‍स का जन्‍म हुआ. यह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी थी. वर्ष 2012 में केके नगर में सात कर्मचारियों के साथ 1,500 वर्गफीट में इसकी शुरुआत की गई. यही वह इलाका था, जहां प्रणवन और प्रिया पले-बढ़े थे, लेकिन कॉलेज के उस संयोगवश सफर तक वे एक-दूसरे से कभी मिले नहीं थे. यह ऑफिस उनके वर्तमान हेड ऑफिस से एक ब्‍लॉक दूरी पर ही था, जहां 50 सदस्‍यीय टीम बैठती थी.

एसपी रोबोटिक्‍स में 75 सदस्‍यीय टीम काम करती है.

वर्ष 2015 तक, कंपनी ने एक करोड़ रुपए का टर्नओवर छू लिया. जब दोनों को यह अहसास हुआ कि उनके राजस्‍व का 50 प्रतिशत शिक्षा के क्षेत्र से आ रहा है तो उन्‍होंने दो और सेंटर खोल दिए. हालांकि इन्‍हें जल्‍द ही बंद करना पड़ा.

गैर-कारोबारी परिवार से ताल्‍लुक रखने वाले इन युवा कारोबारियों ने मुश्किल काम शुरू किया था. प्रिया की मां केमिस्‍ट्री टीचर थीं, पिता सरकारी कर्मचारी और बहन डॉक्‍टर. वे स्‍वीकारती हैं कि उन्‍होंने नौसिखियापन में गलती कर दी. हम बहुत अलग क्षेत्र में अपनी किस्‍मत आजमा रहे थे.

वे इंटरनेट ऑफ थिंग्‍स से जुड़े होम ऑटोमेशन से लेकर इंडस्ट्रियल रोबोट और एजुकेशन किट तक सब कर रहे थे.

प्रणवन कहते हैं, ‘‘हम नहीं जानते थे कि ‘बिजनेस प्‍लान’ का मतलब क्‍या होता है.’’ मध्‍यम वर्गीय परिवार से ताल्‍लुक रखने वाले प्रणवन की जड़ें श्रीलंका में हैं. उनके माता-पिता दोनों शास्‍त्रीय वायलिनवादक हैं. उनकी बहन प्रिया की तरह डॉक्‍टर हैं.

दोनों ने जो सेंटर शुरू किए थे, वे इसलिए असफल हो गए क्‍योंकि उनमें पर्याप्‍त कुशल शिक्षक नहीं थे. प्रिया सेंटर बंद करने का कारण बताती हैं, ‘‘हम छोटे बच्‍चों को सिखा रहे थे, जिनके पास ढेरों सवाल और जिज्ञासाएं होती थीं. जिस पल उन्‍हें लगता था कि उनके सवालों के जवाब नहीं मिल रहे हैं, उनकी दिलचस्‍पी खत्‍म हो जाती थी. हम अपने स्‍टूडेंट्स को साधारण टीचर नहीं दे सकते थे.’’

वर्ष 2016 में डिजिटल टीचर के विकास के लिए उन्‍होंने बाहरी निवेशकों और अन्‍य निवेशक समूहों से 2 करोड़ रुपए जुटाए. प्रिया कहती हैं, ‘‘हमने तय किया कि अब कोई फिजिकल ट्रेनर नहीं रखेंगे और स्‍मार्ट क्‍लास मॉड्यूल के जरिये पढ़ाएंगे.’’ अगले साल यह मॉडल तैयार हो गया..

एसपी रोबोटिक्‍स में प्रशिक्षण के बाद बच्‍चे. बच्‍चों ने यहां सीखा कि खुद एरियल व्‍हीकल कैसे बनाया जाता है.

अब लोग ऑनलाइन किट खरीदते थे और डिजिटल टीचर के जरिये सीखते थे. उन्‍होंने स्‍मार्ट क्‍लास मॉड्यूल की टेस्टिंग के लिए चेन्‍नई में दो सेंटर भी खोले. छह महीनों में ही दो और सेंटर बढ़ गए.

अब बाजार में चार रोबोटिक किट उपलब्‍ध थीं- बोट्स, ड्रोन्‍स, आईओटी और वीआर. स्‍टूडेंटस के लिए भी दो लर्निंग मॉड्यूल थे. इन्‍हें ऑनलाइन खरीदा जा सकता था या ट्रेनिंग सेंटर पर कम कीमत में उपलब्‍ध कोर्स के जरिये सीखा जा सकता था. इन ट्रेनिंग सेंटर को मेकर लैब नाम दिया गया था. किट की लागत 7,000 रुपए से 50,000 रुपए तक है. वीआर मॉडल की लागत सबसे अधिक है.

जल्‍द ही उनका सालाना टर्नओवर 1.5 करोड़ रुपए पहुंच गया. वर्ष 2018 में उन्‍होंने अपने ट्रेनिंग सेंटर के लिए फ्रैंचाइजी मॉडल लॉन्‍च किया. आज उनके 75 सेंटर हैं और एसपी रोबोटिक्‍स का टर्नओवर 4 करोड़ रुपए है, जबकि ब्रांड रेवेन्‍यू 7 से 8 करोड़ रुपए है.

प्रणवन कहते हैं, ‘‘हमारी मेकर लैब में 5,000 रुपए में कोई भी विश्‍वस्‍तरीय ड्रोन उड़ा सकता है और एरियल व्‍हीकल का अपना खुद का वर्जन बना सकता है. एक बार जब बच्‍चे टेक्‍नोलॉजी जान जाते हैं, इसके बाद वे घर पर खुद का डिवाइस भी बना सकते हैं. इसके लिए बस कुछ पहिए, सेंसर और कुछ अन्‍य कंपोनेंट चाहिए होते हैं, जो 1,200 रुपए में आ जाते हैं!’’

उनके इंडस्ट्रियल प्रोजेक्‍ट में क्‍वालकॉम के लिए काम भी शामिल है. यह एक अमेरिकी मल्‍टी नेशनल कंपनी है, जो वायरलेस चिप जैसे प्रोडक्‍ट पर काम करती है. उन्‍होंने क्‍वालकॉम के लिए एक ऑटोमेटेड गाइडेड व्‍हीकल बनाया है. यह प्रोजेक्‍ट मेकर्स लैब के 11 से 13 साल के स्‍टूडेंटस की एक टीम ने पूरा किया है, इस पर इंटर्नशिप प्रोजेक्‍ट की तरह काम किया गया. इससे बच्‍चों ने 5,000 से 10,000 रुपए तक कमाए.

प्रिया और प्रणवन ने भारत में बच्‍चों के बीच रोबोटिक्‍स को मशहूर करने की शुरुआत की है. 

असल में, प्रिया और प्रणवन अपने काम के जरिये भारत के तकनीकी परिदृश्‍य में क्रांतिकारी बदलाव ला रहे हैं. दरअसल यही वह प्रतिज्ञा थी, जो उन्‍होंने ईरान में आयोजित इंटरनेशनल रोबोटिक्‍स कॉम्‍पीटिशन से लौटकर की थी.

दर्जनों सदस्‍यों वाली बड़ी टीमों के मुकाबले दूसरे नंबर पर आने के बावजूद दोनों को अहसास हुआ कि रोबोटिक्‍स भारतीय प्रौद्योगिकी पर उचित प्रभाव नहीं छोड़ पाई है और इसे बदलने की जरूरत है.


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • The Tea Kings

    ये हैं चेन्नई के चाय किंग्स

    चेन्नई के दो युवाओं ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई, फिर आईटी इंडस्ट्री में नौकरी, शादी और जीवन में सेटल हो जाने की भेड़ चाल से हटकर चाय की फ्लैवर्ड चुस्कियों को अपना बिजनेस बनाया. आज वे 17 आउटलेट के जरिये चेन्नई में 7.4 करोड़ रुपए की चाय बेच रहे हैं. यह इतना आसान नहीं था. इसके लिए दोनों ने बहुत मेहनत की.
  • Sid’s Farm

    दूध के देवदूत

    हैदराबाद के किशोर इंदुकुरी ने शानदार पढ़ाई कर शानदार कॅरियर बनाया, अच्छी-खासी नौकरी की, लेकिन अमेरिका में उनका मन नहीं लगा. कुछ मनमाफिक काम करने की तलाश में भारत लौट आए. यहां भी कई काम आजमाए. आखिर दुग्ध उत्पादन में उनका काम चल निकला और 1 करोड़ रुपए के निवेश से उन्होंने काम बढ़ाया. आज उनके प्लांट से रोज 20 हजार लीटर दूध विभिन्न घरों में पहुंचता है. उनके संघर्ष की कहानी बता रही हैं सोफिया दानिश खान
  • Bharatpur Amar Singh story

    इनके लिए पेड़ पर उगते हैं ‘पैसे’

    साल 1995 की एक सुबह अमर सिंह का ध्यान सड़क पर गिरे अख़बार के टुकड़े पर गया. इसमें एक लेख में आंवले का ज़िक्र था. आज आंवले की खेती कर अमर सिंह साल के 26 लाख रुपए तक कमा रहे हैं. राजस्थान के भरतपुर से पढ़िए खेती से विमुख हो चुके किसान के खेती की ओर लौटने की प्रेरणादायी कहानी.
  • Shadan Siddique's story

    शीशे से चमकाई किस्मत

    कोलकाता के मोहम्मद शादान सिद्दिक के लिए जीवन आसान नहीं रहा. स्कूली पढ़ाई के दौरान पिता नहीं रहे. चार साल बाद परिवार को आर्थिक मदद दे रहे भाई का साया भी उठ गया. एक भाई ने ग्लास की दुकान शुरू की तो उनका भी रुझान बढ़ा. शुरुआती हिचकोलों के बाद बिजनेस चल निकला. आज कंपनी का टर्नओवर 5 करोड़ रुपए सालाना है. शादान कहते हैं, “पैसे से पैसा नहीं बनता, लेकिन यह काबिलियत से संभव है.” बता रहे हैं गुरविंदर सिंह
  • Santa Delivers

    रात की भूख ने बनाया बिज़नेसमैन

    कोलकाता में जब रात में किसी को भूख लगती है तो वो सैंटा डिलिवर्स को फ़ोन लगाता है. तीन दोस्तों की इस कंपनी का बिज़नेस एक करोड़ रुपए पहुंच गया है. इस रोचक कहानी को कोलकाता से बता रहे हैं जी सिंह.