कैसे ख़ुद पर भरोसा कर खड़ा किया 130 करोड़ रुपए का कारोबार
02-Apr-2025
By सोफ़िया दानिश खान
नई दिल्ली
नीलम मोहन अद्भुत महिला हैं. उन्होंने ख़ुद के दम पर अपना बिज़नेस एंपायर खड़ा कर लिया. चाहे कॉलेज की पढ़ाई हो, शादी हो, मां बनना हो या फिर गारमेंट डिज़ाइनर के तौर पर ख़ुद को स्थापित करना, उन्होंने हमेशा ख़ुद पर भरोसा किया.
यह शुरुआत हुई 1993 में मात्र चार दर्जियों के साथ. आज 130 करोड़ के टर्नओवर वाले मैग्नोलिया मार्टनिक क्लोदिंग प्राइवेट लिमिटेड में 3,000 लोग काम करते हैं.
![]() |
दिल्ली में फ़्रीलांस डिज़ाइनर के तौर पर शुरुआत करने वाली नीलम मोहन अब एक बिज़नेस की मालकिन हैं. इसका टर्नओवर 130 करोड़ रुपए सालाना है और इससे 3,000 लोगों को रोज़गार मिला है. (सभी फ़ोटो : नवनिता)
|
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बीए करते हुए उन्होंने वैकल्पिक विषय के रूप में पेंटिंग की पढ़ाई की. उनके पिता रेलवे कर्मचारी थे. चाहे दिल्ली हो, पंजाब या बनारस, जहां-जहां उनके पिता का तबादला हुआ, वहीं नीलम का बचपन बीता.
21 साल की उम्र में उनकी शादी आईआईटी-एमबीए कर चुके अमित मोहन से हो गई.
अब उम्र के 62वें पड़ाव पर पहुंच चुकीं नीलम बताती हैं, “मैं पति के साथ दिल्ली आ गई और डिज़ाइनर के तौर पर पहला मौक़ा मिला. मैंने यूपी एक्सपोर्ट कॉर्पोरेशन के साथ पुरुषों के कपड़ों के कुछ डिज़ाइन तैयार किए. इस काम के लिए मुझे मासिक 3,000 रुपए मिले.”
नीलम की ड्राइंग अच्छी थी, इसलिए उन्हें क्रिएटिव डिज़ाइन बनाने में आसानी हुई.
जल्द ही साल 1977 में उन्हें नारायना स्थित कानी फ़ैशंस में स्थायी नौकरी मिल गई.
नीलम बताती हैं, “उस वक्त मेरी उम्र सिर्फ़ 22 साल थी और मैं कंपनी के सैंपलिंग डिपार्टमेंट की प्रमुख थी.”
साल 1978 में जब वो गर्भवती हुईं, तो सातवें महीने में उन्हें यह काम छोड़ना पड़ा, क्योंकि वो बस से सफर नहीं कर सकती थीं. उस समय वह एक्सपोर्ट हाउस उन पर इस कदर निर्भर हो गया था कि नौवें महीने तक चेयरमैन की कार उन्हें घर से लेकर जाती और छोड़ने आती.
सिद्धार्थ के जन्म के बाद वो पूरा समय अपने बेटे को देना चाहती थीं, लेकिन एक एक्सपोर्ट हाउस के मालिक उनके पुराने दोस्त ने उन्हें आधा दिन काम करने का सुझाव दिया. वहां वो अपने बेटे को भी साथ ले जा सकती थीं. इस प्रस्ताव पर वो मान गईं.
![]() |
मैग्नोलिया ने अपना ध्यान बच्चों के कपड़ों से हटाकर महिलाओं के कपड़ों की तरफ़ लगाया. यूरोप से अमेरिका तक बदले मार्केट से यह क़दम स्मार्ट साबित हुआ.
|
एक जर्मन क्लाइंट स्टीलमैन को उनकी डिज़ाइन पसंद आई और पहली बार उन्होंने एक भारतीय डिज़ाइनर से डिज़ाइन मंगाई.
नीलम बताती हैं, “मैंने फ़्रीलांसिंग का काम जारी रखा. मुझे 500 रुपए प्रति घंटा कमाई होती थी. इसी दौरान मेरी पुरानी कंपनी की एक ऑस्ट्रेलियाई बायर ऐलिस मेरे कंपनी छोड़ने के बाद से काम के स्तर से ख़ुश नहीं थी. इसलिए उसने मुझे ढूंढा और 50 प्रतिशत पैसा एडवांस ऑफ़र किया ताकि मैं उनके लिए तुरंत काम शुरू कर सकूं.”
ऐलिस के 50,000 रुपए की मदद से उन्होंने अपने दोस्त हरमिंदर सालधी के साथ 1983 में ओपेरा हाउस प्राइवेट लिमिटेड की शुरुआत की. इसमें उनके पुराने साथी सुशील कुमार भी शामिल हुए. इस तरह ऑस्ट्रेलियन क्लाइंट के लिए उत्पादन की शुरुआत हुई.
पहले साल कंपनी का टर्नओवर 15 लाख रुपए था, जो हर आने वाले सालों में दोगुना होता चला गया.
साल 1991 तक सब कुछ ठीकठाक चला, लेकिन उसी साल वो और उनके पति अलग हो गए.
अगले साल हरमिंदर और साहिल के साथ मतभेद के कारण नीलम कंपनी से अलग हो गईं और उन्होंने कंपनी में अपना हिस्सा तीन करोड़ रुपए में बेच दिया.
उन दिनों को याद करते हुए नीलम बताती हैं, “कंपनी छोड़ने से पहले मैंने अपना सबसे अच्छा कलेक्शन डिज़ाइन तैयार किया क्योंकि मैं बिना किसी झगड़े के कंपनी छोड़ना चाहती थी.”
![]() |
डिज़ाइन नीलम के डीएनए का हिस्सा है.
|
2 जनवरी 1993 में उन्होंने चार दर्ज़ियों और मुट्ठीभर कर्मचारियों के साथ मैग्नोलिया ब्लॉसम की शुरुआत की. उन्होंने पंचशील पार्क में 1 करोड़ 40 लाख की लागत से एक घर ख़रीदा और उसे एक फ़ैक्ट्री में तब्दील कर दिया. यहां कर्मचारी दिन भर काम के बाद खा और सो भी सकते थे.
नीलम बताती हैं, “मैं शुरुआत में हर महीने 20,000 रुपए सैलेरी भुगतान करती थी. पहले साल से ही हम मुनाफ़ा कमाने लगे और हमारा टर्नओवर 1.25 करोड़ रुपए पहुंच गया. मैंने ग्राहकों की तलाश में दुनिया भर का दौरा किया और फ़्रांस की कंपनी कियाबी के साथ अच्छी डील साइन की.”
अब तक मैग्नोलिया ब्लॉसम मुख्य रूप से बच्चों के कपड़े बनाती थी. हालांकि बाद में उसने महिलाओं के कपड़ों की ओर ध्यान देना शुरू किया. साथ ही उन्होंने बाज़ार को यूरोप से अमेरिका तक फ़ैलाया, जो एक स्मार्ट क़दम साबित हुआ.
आगामी वर्षों में, नीलम की बदौलत कई ज़िंदगियों में बदलाव आया. जैसे मुन्ना मास्टर जिन्हें नीलम ने मैग्नोलिया में पैटर्न मेकिंग सिखाई. उनके पास आज एक कार है और वो एक लाख रुपए महीना तक कमाते हैं.
नीलम का बिज़नेस अच्छा चल रहा था, लेकिन कर्मचारियों पर अधिक ख़र्च के चलते कंपनी को घाटा होने लगा और साल 2002 में कंपनी दीवालिया होने की कगार पर आ गई.
ऐसे में एक एक्सपोर्टर दोस्त ने उन्हें सलाह दी कि वो कंपनी का काम आउटसोर्स कर दें.
नीलम बताती हैं, “मैंने उत्पादन का काम आउटसोर्स करना शुरू कर दिया और भारी मात्रा में कर्मचारी कम कर दिए. एक वक्त जहां मैग्नोलिया ब्लॉसम में 650 लोग काम करते थे, यह संख्या घटकर अब 100 हो गई थी.”
कंपनी को संभलने में क़रीब एक साल लगा, लेकिन आखिरकार अच्छे दिन एक बार फिर लौट आए.
साल 2002 में जब उनका बेटा सिद्धार्थ अमेरिका से पढ़ाई करके लौटा तो अपनी मां को सुबह तीन बजे तक काम करते देखकर वह तुरंत मां की मदद के लिए आगे आया.
![]() |
नोएडा स्थित मैग्नोलिया की इमारत के सामने नीलम.
|
2007 में कंपनी फिर से अपनी गति से दौड़ने लगी. अगले 10 सालों में कंपनी का टर्नओवर 30 करोड़ से बढ़कर 130 करोड़ रुपए हो गया.
नीलम कहती हैं, “सिद्दार्थ अब लीड-सर्टिफ़ाइड सस्टेनेबल फ़ेसिलिटी बनाना चाहता है. मुझे उस पर बहुत नाज़ है.”
नीलम, सिद्दार्थ और उनकी पत्नी पल्लवी मैग्नोलिया मार्टनिक क्लोदिंग प्राइवेट लिमिटेड में डायरेक्टर हैं. उनका ऑफ़िस नोएडा में है और एक दूसरी फ़ैक्ट्री पर काम चल रहा है.
साल 2009 में नीलम ने बुज़ुर्गों के लिए एक घर बनाने पर काम करना शुरू किया. पंचवटी नामक इस घर में बुज़ुर्गों के लिए सभी सुविधाएं हैं.
अब उनका ध्यान पूरी तरह इसी पर है.
मुस्कुराते हुए नीलम कहती हैं, “मैं जानती हूं कि बेटे के हाथ में कंपनी का भविष्य सुरक्षित है. यक़ीनन नीलम ने संबंधों के साथ बिज़नेस में भी बेहतर तरीक़े से निवेश किया है.
आप इन्हें भी पसंद करेंगे
-
मां की सीख ने दिलाई मंजिल
यह प्रेरक दास्तां एक ऐसी लड़की की है, जो बहुत शर्मीली थी. किशोरावस्था में मां ने प्रेरित कर उनकी ऐसी झिझक छुड़वाई कि उन्होंने 17 साल की उम्र में पहली कंपनी की नींव रख दी. आज वे सफल एंटरप्रेन्योर हैं और 487 करोड़ रुपए के बिजनेस एंपायर की मालकिन हैं. बता रही हैं सोफिया दानिश खान -
लॉजिस्टिक्स के लीडर
दिल्ली के ईशान सिंह बेदी ने लॉजिस्टिक्स के क्षेत्र में किस्मत आजमाई, जिसमें नए लोग बहुत कम जाते हैं. तीन कर्मचारियों और एक ट्रक से शुरुआत की. अब उनकी कंपनी में 700 कर्मचारी हैं, 200 ट्रक का बेड़ा है. सालाना टर्नओवर 98 करोड़ रुपए है. ड्राइवरों की समस्या को समझते हुए उन्होंने डिजिटल टेक्नोलॉजी की मदद ली है. उनका पूरा काम टेक्नोलॉजी की मदद से आगे बढ़ रहा है. बता रही हैं सोफिया दानिश खान -
मार्बल भाईचारा
पेपर के पुश्तैनी कारोबार से जुड़े दिल्ली के अग्रवाल परिवार के तीन भाइयों पर उनके मामाजी की सलाह काम कर गई. उन्होंने साल 2001 में 9 लाख रुपए के निवेश से मार्बल का बिजनेस शुरू किया. 2 साल बाद ही स्टोनेक्स कंपनी स्थापित की और आयातित मार्बल बेचने लगे. आज इनका टर्नओवर 300 करोड़ रुपए है. -
शीशे से चमकाई किस्मत
कोलकाता के मोहम्मद शादान सिद्दिक के लिए जीवन आसान नहीं रहा. स्कूली पढ़ाई के दौरान पिता नहीं रहे. चार साल बाद परिवार को आर्थिक मदद दे रहे भाई का साया भी उठ गया. एक भाई ने ग्लास की दुकान शुरू की तो उनका भी रुझान बढ़ा. शुरुआती हिचकोलों के बाद बिजनेस चल निकला. आज कंपनी का टर्नओवर 5 करोड़ रुपए सालाना है. शादान कहते हैं, “पैसे से पैसा नहीं बनता, लेकिन यह काबिलियत से संभव है.” बता रहे हैं गुरविंदर सिंह -
पहाड़ी लड़की, पहाड़-से हौसले
उत्तराखंड के छोटे से गांव में जन्मी गीता सिंह ने दिल्ली तक के सफर में जिंदगी के कई उतार-चढ़ाव देखे. गरीबी, पिता का संघर्ष, नौकरी की मारामारी से जूझीं. लेकिन हार नहीं मानी. मीडिया के क्षेत्र में उन्होंने किस्मत आजमाई और द येलो कॉइन कम्युनिकेशन नामक पीआर और संचार फर्म शुरू की. महज 3 साल में इस कंपनी का टर्नओवर 1 करोड़ रुपए तक पहुंच गया. आज कंपनी का टर्नओवर 7 करोड़ रुपए है. बता रही हैं सोफिया दानिश खान