Milky Mist

Friday, 25 October 2024

कपड़े की थैली सिलने से लेकर हेलमेट बनाने की कहानी

25-Oct-2024 By पार्थो बर्मन
नई दिल्ली

Posted 27 Dec 2017

सुभाष कपूर जब छोटे थे, तब वो 25 पैसे के मुनाफ़े पर कपड़े की थैलियां सिला करते थे. आज 73 साल की उम्र में उनकी शुरू की गई स्टीलबर्ड हाई-टेक इंडिया अब पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन चुकी है और हेलमेट निर्माण में अग्रणी है. कंपनी सालाना 200 करोड़ रुपए का कारोबार कर रही है.


मिलिए सुभाष कपूर से. अपने लंबे उद्यमी जीवन में उन्होंने कई कारोबार आज़माए. छोटी सी उम्र में कपड़े की थैलियां सिलीं. फिर युवावस्था में ऑयल फ़िल्टर बनाने लगे. आख़िरकार हेलमेट और उससे जुड़े साजो-सामान के निर्माण की दुनिया में क़दम रखने से पहले उन्होंने फ़ाइबरग्लास प्रोटेक्शन गियर बनाने की भी कोशिश की.

सादगीपूर्ण शुरुआत कर सुभाष कपूर लंबा सफ़र तय कर चुके हैं. स्टीलबर्ड हाई-टेक इंडिया के चेयरमैन के दिल्ली स्थित दफ्तर में 1700 से अधिक कर्मचारी हैं. (फ़ोटो - पार्थो बर्मन)

 

सुभाष अब स्टीलबर्ड के चेयरमैन हैं. पिछले चार दशक में वे आठ हेलमेट निर्माण इकाई की स्थापना कर चुके हैं. इसकी शुरुआत हुई मई 1976 में. कंपनी के हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले और दिल्ली में तीन-तीन व नोएडा में दो प्लांट हैं.
1,700 से अधिक कर्मचारियों की मदद से उनकी कंपनी हर दिन 9,000 से 10,000 हेलमेट और उससे जुड़ा सामान बनाती है.

 

इन उत्पादों की क़ीमत 900 रुपए से 15,000 रुपए तक होती है. साल 1996 से स्टीलबर्ड और इटली की सबसे बड़ी हेलमेट कंपनी बियफ़े के बीच हुआ करार जारी है.
 

क़रीब 4,000 तरह के हेलमेट बनाने वाली स्टीलबर्ड के उत्पाद श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, ब्राजील, मॉरीशस और इटली को निर्यात होते हैं.
 

यह सब उस व्यक्ति की शुरुआत का नतीजा है, जिसने स्कूल में कभी 33 प्रतिशत से ज्यादा अंक अर्जित नहीं किए.
सुभाष कपूर ख़ुद को सहज-समर्पित इंसान बताते हैं, जिसने ख़ुद से किए वादों को हमेशा पूरा किया.

 

जीवन के शुरुआती दिनों को याद करते हुए सुभाष कहते हैं, “कई बार हमें भूखे पेट सोना पड़ता था. हमारा परिवार झेलम जिले (अब पाकिस्तान) के पिंड ददन खान का चौथा स्तंभ था, लेकिन बंटवारे ने हमें तबाह कर दिया.”
 

सुभाष का प्रतिष्ठित परिवार 26 तरह के कारोबार से जुड़ा था, जिनमें बर्तन, कपड़े, जेवर और खेती शामिल थे.
उनके परिवार के पास 13 कुएं थे. एक कुआं 30-40 एकड़ खेती की ज़मीन को सींच सकता था. साल 1903 में कश्मीर का पहला पेट्रोल पंप सुभाष के परदादा ने शुरू किया था.

 

वक्त बदला और बंटवारे ने इस समृद्ध परिवार को सड़क पर ला दिया.

 

स्टीलबर्ड रोज़ 9,000-10,000 हेलमेट और उससे जुड़ा सामान बनाती है. कंपनी श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, ब्राजील, मॉरीशस और इटली जैसे देशों को निर्यात भी करती है.

अगस्त 1947 में उनकी मां लीलावंती जब अपने चार बेटों चरज, जगदीश, कैलाश और डेढ़ साल के सुभाष के साथ हरिद्वार तीर्थ (वर्तमान में उत्तराखंड में) करने आई थीं, तभी बंटवारे की घोषणा हो गई.
 

उनके पास बच्चों के साथ हरिद्वार में ही रहने के अलावा कोई चारा नहीं था. उस वक्त उनके पति तिलक राज कपूर पाकिस्तान में ही थे.
 

जान बचाकर बमुश्किल सुभाष के पिता भारत आ पाए. जब वो दूसरे हिंदुओं के साथ एक ट्रक पर भारत आने के लिए सवार हुए, तो रास्ते में हुए हमले में कई लोग मारे गए. उनके पिता और चंद ख़ुशक़िस्मत लोग किसी तरह बच पाए.
सीमा पार भारत पहुंचे उनके पिता की हालत बेहद ख़राब थी और जब उन्होंने सरहद पार की, तब उनके तन पर एक कपड़ा तक नहीं था.

 

सुभाष याद करते हैं, “उनके भाई ने उन्हें एक मृत महिला का पेटीकोट दिया, ताकि वे अपना शरीर ढंक सकें. भारत में परिवार एक बार फिर इकट्ठा तो हुआ, लेकिन हालत ऐसी थी कि गुज़र करना मुश्किल था.”
 

हरिद्वार में चार मुश्किल साल गुज़ारने के बाद 1951 में परिवार दिल्ली आ गया. यह संघर्ष 1956 तक चला. चूंकि कारोबार पूरी तरह चौपट हो गया था, इसलिए उनके पिता ने कारोबार शुरू करने का फ़ैसला किया.
 

उन्होंने अपनी पत्नी के जेवर बेच दिए और साल 1956 में नमक की पैकिंग के लिए कपड़े की थैलियां बनाने का छोटा कारोबार शुरू किया.
 

सुभाष कहते हैं, “उन्होंने कंपनी का नाम ‘कपूर थैली हाउस’ रखा. परिवार ने एक किलो और ढाई किलो के हिसाब से कपड़े की थैलियां सिलना शुरू की. हमने हर पैक की कीमत चार रुपए रखी. हर पैक में 100 थैलियां होती थीं. रातोरात ये थैलियां हिट हो गईं.”
 

सुभाष का काम कपड़े काटना था, जबकि उनके भाई कपड़े को सिलकर, उन्हें पैक कर और थैलियों पर प्रिंट करने का काम करते थे. उन्हें आज भी 1959-60 में दी गई मैट्रिक की परीक्षा का दिन याद है.

 

सुभाष ने वर्ष 1976 में हेलमेट बनाने का काम शुरू किया.

सुभाष बताते हैं, “परीक्षा देने जाने से पहले मुझे थैलियों के लिए कपड़ों को काटना होता था. उन दिनों पढ़ाई से ज्यादा ज़रूरी था जीविका के लिए काम करना.”
 

इस कारण वो आगे नहीं पढ़ पाए.
 

पारिवारिक कारोबार ‘कपूर थैली हाउस’ को हर थैली पर 25 पैसे का मुनाफ़ा होता था, जो इकट्ठा होते-होते 1961-62 में 6,000 रुपए तक पहुंच गया.
 

उन्हीं दिनों सुभाष के भाई कैलाश कपूर के दोस्त सुरिंदर अरोड़ा ऑयल फ़िल्टर बनाने का बिज़नेस आइडिया लेकर आए.
शुरुआत में उन्होंने 12 ऑयल फ़िल्टर बनाए और करोल बाग स्थित ओरिएंटल ऑटो सेल्स को 18 रुपए में बेच दिए। उन्हें बनाने की लागत 12 रुपए थी. यानी उन्हें सीधा छह रुपए का मुनाफ़ा हुआ. इससे उनका उत्साह बढ़ गया.

 

उन्होंने सुरिंदर के साथ पार्टनरशिप का प्रस्ताव किया, लेकिन सुरिंदर ने मना कर दिया. इसके बदले सुरिंदर ने अपनी मशीनों को 3,500-4,000 रुपए में बेचने का प्रस्ताव दिया, जिसे सुभाष ने स्वीकार कर लिया और मशीनें 3,000 रुपए में ख़रीद लीं.
 

सुभाष कहते हैं, “वो मेरा पहला निवेश था, लेकिन जल्द ही अहसास हुआ कि मुझे थैली और ऑयल फ़िल्टर में से किसी एक को चुनना होगा, ताकि मैं किसी एक पर ध्यान केंद्रित कर पाऊं.”
 

उन्होंने हिम्मत जुटाई और ऑयल फ़िल्टर के ऑर्डर की उम्मीद लेकर कश्मीरी गेट स्थित हंसराज ऑटो एजेंसी पहुंचे. लेकिन काम आसान नहीं था.
 

दुकान के मालिक हंसराज ने रूखा बर्ताव किया और उनसे ऑयल फ़िल्टर के बारे में कई सवाल पूछे, जैसे वो किस तरह का ऑयल फ़िल्टर बनाएंगे, किन गाड़ियों के लिए आदि.

 

सुभाष अपने ब्रदर-इन-लॉ के साथ.

सुभाष स्वीकारते हैं, “मुझे उन सवालों के जवाब पता नहीं थे. मैं दरअसल बैग निर्माता था और एक नए काम की शुरुआत करना चाह रहा था.”


हंसराज के सवालों के बाद ऐसा लगा कि सुभाष रो देंगे, जिसके बाद हंसराज का रुख थोड़ा नर्म हुआ और उन्होंने सुभाष को कुछ सीख दी.


आख़िरकार 13 मार्च 1963 को सुभाष ने दिल्ली के नवाबगंज में जमीर वाली गली में अपने परिवार के साथ पार्टनरशिप में स्टीलबर्ड इंडस्ट्री की स्थापना की.


स्टीलबर्ड नाम सुरिंदर ने सुझाया था.
 

सुभाष गर्व से बताते हैं, “उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. अगले दो सालों में मैंने ट्रैक्टर के लिए क़रीब 280 तरह के ऑयल फिल्टर बनाए, जिनमें फ्यूल, एयर, हाइड्रोलिक और लिफ्ट शामिल हैं।”
 

कुछ ही सालों में वो इतने सफल हुए कि उनके दोस्त उनसे कारोबार की सलाह लेने के लिए आने लगे. उन्होंने दोस्तों को हेलमेट का निर्माण शुरू करने की सलाह दी क्योंकि सरकार हेलमेट पहनना अनिवार्य करने वाली थी.
 

एक दिन जब वे वाशरूम में थे तो उन्हें ख़्याल आया कि दोस्तों को सलाह देने के बजाय वो ख़ुद हेलमेट का निर्माण क्यों नहीं करते?
सुभाष बताते हैं, “मैं बाहर आया है और मैंने घोषणा की कि जून 1976 में हम हेलमेट का निर्माण करेंगे.”

 

सत्तर के दशक से पहले भारत में हेलमेट पहनना अनिवार्य नहीं था और ज्यादातर भारतीय आयातित हेलमेट पर निर्भर थे.
 

साल 1976 में दिल्ली सरकार ने हेलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया.
 

पिल्किंगटन लिमिटेड पहली कंपनी थी जिसने भारत में फ़ाइबरग्लास का प्लांट लगाया था. सुभाष इस कंपनी में कुछ लोगों को जानते थे, जिन्होंने सुभाष को हेलमेट के निर्माण से जुड़ी सभी ज़रूरी जानकारी दी. हेलमेट पहनना अनिवार्य होने का दिन नज़दीक आते-आते हेलमेट का निर्माण शुरू हो चुका था.

 

सुभाष आज भी उस संघर्ष को याद करते हैं जब विभाजन के बाद उनका परिवार पलायन कर दिल्ली आ गया था और तंगहाल था.

 

उन्होंने दिल्ली की कुछ दुकानों में अपने हेलमेट की मार्केटिंग शुरू की. शुरुआती दाम 65 रुपए था, लेकिन कुछ दुकानदार इसकी कीमत 60 रुपए तक लाना चाहते थे.
सुभाष कहते हैं, “मैं दबाव में नहीं आया क्योंकि मुझे पता था कि मुझसे हेलमेट ख़रीदने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था. जब मांग बढ़ी तो उन सभी दुकानदारों को हमारे हेलमेट बेचना शुरू करना पड़ा और एक दिन में मैंने बाज़ार से ढाई लाख रुपए कमाए!”

 

एक समझदार कारोबारी की तरह उन्होंने पूरी रक़म अख़बारों और दूरदर्शन पर प्रचार-प्रसार में ख़र्च कर दी. स्टीलबर्ड हेलमेट के विज्ञापन मशहूर कार्यक्रम ‘चित्रहार’ के दौरान आने लगे, जिसमें बॉलीवुड गाने प्रसारित होते थे. निवेश का तत्काल फ़ायदा हुआ और स्टीलबर्ड हेलमेट की मांग कई गुना बढ़ गई. उन्होंने हेलमेट का दाम 65 रुपए से बढ़ाकर 70.40 रुपए कर दिया.
 

सुभाष कहते हैं, “मुझे याद है, जिस दिन हेलमेट पहनना अनिवार्य किया गया, मेरे झंडेवालान दफ़्तर के बाहर क़रीब 1,000 ग्राहक इंतज़ार कर रहे थे. यहां तक कि टूटे हुए हेलमेट भी बिक गए. लोगों ने हमें एडवांस पैसा देना शुरू कर दिया. बिक्री में ज़बर्दस्त तेज़ी आ गई थी.”
 

धीरे-धीरे कारोबार में बढ़ोतरी हुई और उन्होंने 1980 में मायापुरी में एक एकड़ ज़मीन पर फ़ैक्ट्री की शुरुआत की. हालांकि उन्हें सफलता पाने में कई कठिनाइयां भी पेश आईं.
 

साल 1984 में उन्होंने सुरक्षा के लिए विंड प्रोटेक्शन गार्ड्स और फ़ाइबरग्लास के दूसरे सामान का निर्माण शुरू किया, लेकिन कारोबार नहीं चला, जिससे उन्हें आर्थिक नुकसान हुआ. सुभाष पछताते हैं कि “मैंने बहुत सारा पैसा खो दिया.”
साल 1999 में उनके छोटे भाई रमेश कारोबार से अलग हो गए.


एक अन्य दुर्भाग्यपूर्ण घटना 29 नवंबर 2002 को हुई. उनकी मायापुरी फ़ैक्ट्री में शॉर्टसर्किट से आग लग गई, जिससे उन्हें 20-22 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.
 

सुभाष कहते हैं, “एसबीआई का शुक्रिया, जिसने मुझ पर भरोसा किया और ऋण दिया। इसके चलते मैं अपने बिज़नेस को दोबारा पटरी पर ला पाया.”


आज सुभाष को सिर्फ़ एक बात का अफ़सोस है कि उनका बचपन दो जून की रोटी जुटाने की कोषिष में बीत गया.
वो हंसते हुए कहते हैं, “शरारत क्या होती है मैं यह जान नहीं पाया, लेकिन अब मैं पोते-पोतियों के साथ उन बीते दिनों को दोबारा जीने की कोशिश कर रहा हूं.”

 

सुभाष कहते हैं यदि आप मजबूती से खड़े हों तो कोई बाधा भी आपके सामने आने से डरती है.

 

तीन मई साल 1971 में उन्होंने ललिता से शादी की. उनके दो बच्चे हैं - राजीव और अनामिका.
शादी के बारे में पूछे जाने पर उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है.


सुभाष याद करते हैं, “वो पहली नज़र के प्यार जैसा था. मैंने उन्हें पहली बार उस वक्त देखा, जब वो सिर झुकाए नवाबगंज के एक टाइपिंग सेंटर में जा रही थीं. उनकी उम्र क़रीब 19 साल की थी और मैं 23-24 साल का था. ऐसे ही सिलसिला चल निकला : हर दिन शाम पांच बजे मैं टाइपिंग सेंटर के बाहर उनका इंतज़ार करता. एक शाम जब मैं उन्हें देख रहा था, तो नज़दीक के मिठाईवाले ने इस पर आपत्ति जताई और उसके भाइयों का डर दिखाया.”
 

सुभाष ने पीछे हटने के बजाय शादी का प्रस्ताव भेजने का फ़ैसला किया- लड़की के भाइयों से बात करने के लिए उन्होंने अपने एक दोस्त की मदद ली.
सफ़लता पाने के लिए ‘हेलमेट मैन’ सुभाष की क्या सलाह होगी?

 

वो कहते हैं, “मैंने पूरी ज़िंदगी चुनौतियों के सामने घुटने टेकने के बजाय उनका मुकाबला किया. अगर आप मजबूती से खड़े हों तो कोई बाधा भी आपके सामने आने से डरती है.”


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • World class florist of India

    फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन

    आज दुनिया में ‘फ़र्न्स एन पेटल्स’ जाना-माना ब्रैंड है लेकिन इसकी कहानी बिहार से शुरू होती है, जहां का एक युवा अपने पूर्वजों की ख़्याति को फिर अर्जित करना चाहता था. वो आम जीवन से संतुष्ट नहीं था, बल्कि कुछ बड़ा करना चाहता था. बिलाल हांडू बता रहे हैं यह मशहूर ब्रैंड शुरू करने वाले विकास गुटगुटिया की कहानी.
  • IIM topper success story

    आईआईएम टॉपर बना किसानों का रखवाला

    पटना में जी सिंह मिला रहे हैं आईआईएम टॉपर कौशलेंद्र से, जिन्होंने किसानों के साथ काम किया और पांच करोड़ के सब्ज़ी के कारोबार में धाक जमाई.
  • Chandubhai Virani, who started making potato wafers and bacome a 1800 crore group

    विनम्र अरबपति

    चंदूभाई वीरानी ने सिनेमा हॉल के कैंटीन से अपने करियर की शुरुआत की. उस कैंटीन से लेकर करोड़ों की आलू वेफ़र्स कंपनी ‘बालाजी’ की शुरुआत करना और फिर उसे बुलंदियों तक पहुंचाने का सफ़र किसी फ़िल्मी कहानी जैसा है. मासूमा भरमाल ज़रीवाला आपको मिलवा रही हैं एक ऐसे इंसान से जिसने तमाम परेशानियों के सामने कभी हार नहीं मानी.
  • Pagariya foods story

    क्वालिटी : नाम ही इनकी पहचान

    नरेश पगारिया का परिवार हमेशा खुदरा या होलसेल कारोबार में ही रहा. उन्होंंने मसालों की मैन्यूफैक्चरिंग शुरू की तो परिवार साथ नहीं था, लेकिन बिजनेस बढ़ने पर सबने नरेश का लोहा माना. महज 5 लाख के निवेश से शुरू बिजनेस ने 2019 में 50 करोड़ का टर्नओवर हासिल किया. अब सपना इसे 100 करोड़ रुपए करना है.
  • Royal brother's story

    परेशानी से निकला बिजनेस आइडिया

    बेंगलुरु से पुड्‌डुचेरी घूमने गए दो कॉलेज दोस्तों को जब बाइक किराए पर मिलने में परेशानी हुई तो उन्हें इस काम में कारोबारी अवसर दिखा. लौटकर रॉयल ब्रदर्स बाइक रेंटल सर्विस लॉन्च की. शुरुआत में उन्हें लोन और लाइसेंस के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा, लेकिन मेहनत रंग लाई. अब तीन दोस्तों के इस स्टार्ट-अप का सालाना टर्नओवर 7.5 करोड़ रुपए है. रेंटल सर्विस 6 राज्यों के 25 शहरों में उपलब्ध है. बता रहे हैं गुरविंदर सिंह