Milky Mist

Sunday, 6 July 2025

महिलाओं के बलबूते खड़ी की करोड़ों की पार्सल डिलिवरी सर्विस

06-Jul-2025 By देवेन लाड
मुंबई

Posted 17 Feb 2018

रेवती रॉय के जीवन में कई अप्रत्याशित चुनौतियां आईं, जिनसे उन्हें निजी और आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन उन्होंने साहस व बुद्धिमानी से उनका मुकाबला किया और सफ़लता पाई.

इस दौरान न सिर्फ़ उनकी ज़िंदगी बेहतर हुई, बल्कि कमज़ोर तबकों से आने वाली महिलाओं के जीवन में भी बदलाव आया.

रेवती रॉय ने पिछले साल हे दीदी नामक डिलिवरी स्टार्ट-अप शुरू किया. इससे कमज़ोर तबके की क़रीब 100 महिलाओं को रोज़गार मिला है. (फ़ोटो: अज़हर खान)

सत्तावन साल की सामाजिक उद्यमी रेवती का सफ़र 2007 में शुरू हुआ, जब उन्होंने टैक्सी चलाना शुरू किया.

दस साल बाद 2016 में उन्होंने हे दीदी डिलिवरी सर्विस की शुरुआत की. मुंबई की यह निजी कंपनी कमज़ोर तबके की महिलाओं के साथ काम करती है. 

आज हे दीदी क़रीब 100 महिलाओं को 10,000 रुपए मासिक तनख़्वाह पर रोज़गार दे रही है. इसके अलावा 2,823 महिलाएं फ़रवरी 2016 में रेवती द्वारा स्थापित ट्रेनिंग कंपनी ज़फ़ीरो लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड में 45 दिन का प्रशिक्षण ले रही हैं.


प्रशिक्षण के बाद ही ये महिलाएं हे दीदी कंपनी का हिस्सा बन पाएंगी. 
 

प्रशिक्षण के लिए हर महिला को 1,500 रुपए शुल्क देना होता है. हालांकि हर महिला पर 11,500 रुपए का ख़र्च आता है.

बाक़ी 10,000 रुपए का ख़र्च कौशल भारत-कुशल पहल के तहत महाराष्ट्र राज्य कौशल विकास संस्था, आरपीजी फ़ाउंडेशन और टेक महिंद्रा उठाते हैं. ट्रेनिंग मुंबई, बंगलुरु और नागपुर में दी जाती है. 

अमेज़ॉन, पिज्ज़ा हट और सबवे जैसी कई प्रतिष्ठित कंपनियां पिछले साल ही शुरू हुई हे दीदी की ग्राहक हैं. 

इसके अतिरिक्त मुंबई के स्थानीय रेस्तरां जैसे द करी ब्रदर्स और द बोहरी किचन भी कंपनी की सेवाएं लेते हैं.

पहले साल इस कंपनी ने डेढ़ करोड़ का व्यापार किया. रेवती को भरोसा है कि साल 2018 के अंत में यह आंकड़ा पांच करोड़ तक पहुँच जाएगा.

मुंबई के वर्ली में कंपनी का दफ़्तर है. 1,000 वर्ग फ़ीट के इस कैंपस में लड़कियों को प्रशिक्षण दिया जाता है. इसी कैंपस में 5 गुणा 5 वर्ग फ़ीट के कैबिन में रेवती बैठती हैं. यहीं उन्होंने अपनी कहानी सुनाई.

रेवती कई मीडिया कंपनियों के मार्केटिंग विभाग में भी काम कर चुकी हैं.

साल 1960 में कर्नाटक में उनका जन्म हुआ. इसके बाद वो मुंबई आ गईं. यहां एक आम मध्यमवर्गीय परिवार में पालन-पोषण हुआ.

उनकी मां गृहिणी थीं और पिता बिज़नेसमैन होने के साथ-साथ रबर इंडस्ट्री से जुड़ी ‘रबर न्यूज़’ नामक एक मासिक ट्रेड मैगज़ीन के मालिक थे. 

रेवती ने प्रभादेवी के एक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाई की और सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से इकोनॉमिक्स में ग्रैजुएशन किया.

वो कहती हैं, “मैं घर में इकलौती थी, इसलिए बहुत लाड़-प्यार में पली. मुझ पर किसी तरह की रोक-टोक नहीं थी. मुझे जो पसंद आता, मैं वो पढ़ सकती थी या काम कर सकती थी.”

ग्रैजुएशन के बाद 1982 में वो ‘करंट वीकली’ के मार्केटिंग विभाग से बतौर प्रशिक्षु जुड़ीं. इसके बाद छह महीने इंडिया टुडे में काम किया. फिर टाइम्स ऑफ़ इंडिया की मार्केटिंग टीम में तीन साल काम किया. उन्होंने 1985 में यह नौकरी छोड़ दी.

रेवती बताती हैं, “1985 में मेरी शादी हो गई. इसके बाद मैंने अपने पति की प्रिंटिंग प्रेस और लेदर फ़ैक्ट्री में हाथ बंटाना शुरू कर दिया. इस बीच दूसरी नौकरियां भी कीं. साल 2004 में मैंने रियल एस्टेट कंपनी चेस्टरटॉन मेघराज में मार्केटिंग प्रमुख के तौर पर काम किया.”

रेवती और उनके पति सिद्धार्थ रॉय ब्रीच कैंडी में अपने तीन बच्चों के साथ सुखी जीवन बिता रहे थे कि अचानक 2004 में उनके जीवन में तूफ़ान आया.

एक दिन उनके पति को दिल का दौरा पड़ा और वो कोमा में चले गए. 29 जनवरी 2007 को उनकी मृत्यु हो गई.

पति का जाना दुखदायी था. उन्हें भावनात्मक क्षति के साथ आर्थिक सदमा भी पहुंचा. पति के इलाज पर वो तीन करोड़ रुपए ख़र्च कर चुकी थीं.

कर्मचारियों को नौकरी शुरू करने से पहले बातचीत करने के तरीक़े और व्यवहार कुशलता का प्रशिक्षण दिया जाता है.

अस्पताल में पति के इलाज के लिए रेवती को घर समेत कई संपत्तियां तक बेचना पड़ीं. पति की मौत के बाद रेवती के पास बच्चों के अलावा कुछ नहीं बचा था.

“उन्हें बचाने के लिए मैंने अपना सब कुछ बेच दिया, लेकिन अंततः कुछ नहीं हुआ.”

उन दिनों को याद करते हुए रेवती भावुक हो जाती हैं.

वो कहती हैं, “मेरा बड़ा बेटा एमआईटी पुणे में पढ़ रहा था, लेकिन कॉलेज की फ़ीस नहीं दे पाने के कारण उसे कॉलेज छोड़ना पड़ा.”

लेकिन रेवती ने हार नहीं मानी. वह एक हिम्मती पत्नी और मज़बूत मां थी. अब भविष्य के बारे में सोचने का समय था. उन्होंने अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाया और विकल्पों पर सोचना शुरू कर दिया.

ड्राइविंग उनका जुनून था; वो कई रैलियों में भी शामिल हो चुकी थीं. इसलिए उन्होंने आजीविका चलाने के लिए ड्राइविंग शुरू करने का फ़ैसला किया.

रेवती बताती हैं, “मैंने एक दोस्त से टूरिस्ट टैक्सी उधार ली. उसी ने मेरा परिचय मुंबई एअरपोर्ट चलाने वाली कंपनी जीवीके से करवाया. मेरी स्थिति देखते हुए उन्होंने मुझे एअरपोर्ट पर एक स्लॉट दे दिया. इस तरह मैंने पैसेंजर लाने-ले जाने शुरू कर दिए.”

26 जनवरी 2007 में रेवती ने अख़बारों में विज्ञापन दिए कि वो एक टैक्सी सर्विस शुरू कर रही हैं और उन्हें महिला ड्राइवर चाहिए.

रेवती बताती हैं, “तीन लड़कियों ने जवाब दिया. लेकिन 29 जनवरी को मेरे पति की मौत हो गई. इसलिए मैंने मार्च में प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया. मैंने उन्हें गाड़ी चलाना और आत्मनिर्भर होना सिखाया.”

रेवती ने तीन इंडिका कार के साथ काम शुरू किया और आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी फ़ॉरशी लॉन्च की. मकसद था कंपनियों के लिए एअरपोर्ट पिक-अप ड्रॉप की सुविधा देना.

रेवती बताती हैं, “इस पहल को मीडिया में अच्छा कवरेज मिला. इसके बाद वित्तीय कंपनी आईएलऐंडएफ़एस ने इसमें निवेश किया.”

हे दीदी ने पुणे और नासिक जैसे शहरों में विस्तार की योजना बनाई है.

इस दौरान उनके दोस्तों ने भी उनकी ख़ूब मदद की.

कुछ ही सालों में जापान की ओरिक्स ने उनकी कंपनी को अतिरिक्त फंडिंग दी, जिसके बाद उन्होंने बिज़नेस 20 कारों तक बढ़ा लिया.

साल 2009 में रेवती ने फ़ॉरशी कंपनी में अपनी हिस्सेदारी छोड़ दी और अगले साल आम आदमी पार्टी नेता प्रीति शर्मा मेनन के साथ केवल महिलाओं वाली वीरा कैब्स की शुरुआत की.

दो साल में ही, 2012 तक उन्होंने इस बिज़नेस को भी छोड़ दिया.

उनका दिमाग़ किसी अन्य बड़े आइडिया पर काम कर रहा था.

वो महिलाओं को बाइक या स्कूटर चलाने में प्रशिक्षण देने के अलावा इंटरपर्सनल स्किल्स में सशक्त बनाना चाहती थीं, ताकि वो अपने पैर पर खड़े हो सकें.

उन्होंने रेस्तरां और दूसरी कंपनियों के लिए डिलिवरी सर्विस की शुरुआत की. 

चार साल बाद यानी फ़रवरी 2016 में उन्होंने ज़फ़ीरो ट्रेनिंग और मार्च में हे दीदी की स्थापना की. इसमें उनकी सहायता कामधेनु स्टोर्स के जगदीश गोठी और एक अन्य स्लीपिंग पार्टनर ने की.

रेवती बताती हैं, “इस लाभकारी स्टार्ट-अप का उद्देश्य कमज़ोर तबके की महिलाओं को समर्थ बनाना था. इस प्रशिक्षण के लिए आने वाली महिलाओं में 1,000 से ज़्यादा ग़रीबी रेखा के नीचे के परिवारों से थीं और उनकी ज़िंदगियां कठिनाइयों से भरी थीं. इनमें से कई महिलाएं पहले दिन के बाद वापस नहीं आईं क्योंकि उनके परिवारों ने उन्हें वापस आने की इजाज़त नहीं दी.”

हे दीदी उपहार, घर का सामान, दस्तावेज़, कुरियर जैसी सभी चीज़ें एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाती है और कंपनियों से 25-30 प्रतिशत कमीशन लेती है.

अभी यह कंपनी मुंबई, हैदराबाद, बंगलुरु और नागपुर में संचालित हो रही है. इसकी योजना जल्द ही बिज़नेस को पुणे और नासिक तक फ़ैलाने की है.

रेवती बताती हैं, “हम महिलाओं को समर्थ बनाने की उम्मीद करते हैं ताकि वो स्वच्छंद रूप से काम कर सकें. सामान की डिलिवरी स्कूटर और बाइक पर की जाती है. हम महिलाओं को ऋण भी देते हैं. ऋण की किस्त उनकी सैलेरी से काट ली जाती है ताकि वो स्कूटर और बाइक की मालिक बन सकें.”

हे दीदी की महिला कर्मचारी रेवती का शुक्रिया अदा करती हैं कि वो उन्हें समर्थ बना रही हैं.

फ़िलहाल हे दीदी को हर दिन 12-15 ऑर्डर मिलते हैं. रेवती हर महीने बिज़नेस पर पांच लाख रुपए ख़र्च करती हैं.

अभी उनका पूरा ध्यान मुनाफ़े की बजाय बिज़नेस को फ़ैलाने और महिलाओं को समर्थ बनाने में है.

रेवती कहती हैं, “पैसा भी आएगा, लेकिन मैं उम्मीद कर रही हूं कि ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं कंपनी में शामिल हों.”

वो कई महिलाओं की पहले ही मदद कर चुकी हैं.

अब 23 वर्षीय सरिता क़दम को ही लें. सरिता ने स्कूल के आगे की पढ़ाई नहीं की  और उनका परिवार भी ग़रीब है. 
वो कहती हैं, “मेरी तनख़्वाह में से 3,097 रुपए ईएमआई के तौर पर कटते हैं लेकिन इस बात से ख़ुश हूं कि आज मैं स्वतंत्र हूं और ख़ुद काम करके कमा सकती हूं.”

रेवती का सपना है कि हे दीदी पार्सल डिलिवरी की उबर बने, जिसमें सभी कर्मचारी महिला हों- एक ऐसा क्षेत्र जिस पर अब तक पुरुषों का प्रभुत्व रहा है.


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • Success story of Falcon group founder Tara Ranjan Patnaik in Hindi

    ऊंची उड़ान

    तारा रंजन पटनायक ने कारोबार की दुनिया में क़दम रखते हुए कभी नहीं सोचा था कि उनका कारोबार इतनी ऊंचाइयां छुएगा. भुबनेश्वर से जी सिंह बता रहे हैं कि समुद्री उत्पादों, स्टील व रियल एस्टेट के क्षेत्र में 1500 करोड़ का सालाना कारोबार कर रहे फ़ाल्कन समूह की सफलता की कहानी.
  • KR Raja story

    कंगाल से बने करोड़पति

    एक वक्त था जब के.आर. राजा होटल में काम करते थे, सड़कों पर सोते थे लेकिन कभी अपना ख़ुद का काम शुरू करने का सपना नहीं छोड़ा. कभी सिलाई सीखकर तो कभी छोटा-मोटा काम करके वो लगातार डटे रहे. आज वो तीन आउटलेट और एक लॉज के मालिक हैं. कोयंबटूर से पी.सी. विनोजकुमार बता रहे हैं कभी हार न मानने वाले के.आर. राजा की कहानी.
  • how a parcel delivery startup is helping underprivileged women

    मुंबई की हे दीदी

    जब ज़िंदगी बेहद सामान्य थी, तब रेवती रॉय के जीवन में भूचाल आया और एक महंगे इलाज के बाद उनके पति की मौत हो गई, लेकिन रेवती ने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने न सिर्फ़ अपनी ज़िंदगी संवारी, बल्कि अन्य महिलाओं को भी सहारा दिया. पढ़िए मुंबई की हे दीदी रेवती रॉय की कहानी. बता रहे हैं देवेन लाड
  • Pagariya foods story

    क्वालिटी : नाम ही इनकी पहचान

    नरेश पगारिया का परिवार हमेशा खुदरा या होलसेल कारोबार में ही रहा. उन्होंंने मसालों की मैन्यूफैक्चरिंग शुरू की तो परिवार साथ नहीं था, लेकिन बिजनेस बढ़ने पर सबने नरेश का लोहा माना. महज 5 लाख के निवेश से शुरू बिजनेस ने 2019 में 50 करोड़ का टर्नओवर हासिल किया. अब सपना इसे 100 करोड़ रुपए करना है.
  • Food Tech Startup Frshly story

    फ़्रेशली का बड़ा सपना

    एक वक्त था जब सतीश चामीवेलुमणि ग़रीबी के चलते लंच में पांच रुपए का पफ़ और एक कप चाय पी पाते थे लेकिन उनका सपना था 1,000 करोड़ रुपए की कंपनी खड़ी करने का. सालों की कड़ी मेहनत के बाद आज वो उसी सपने की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं. चेन्नई से पीसी विनोज कुमार की रिपोर्ट