सात्विक भोजन बेचकर आप सालभर में 18 करोड़ रुपए कमा सकते हैं
20-May-2025
By सोफिया दानिश खान
नई दिल्ली
भारत में सात्विक जीवन जीने का मतलब है प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रखना और सादा लेकिन पौष्टिक भोजन करना.
इसी सोच को ध्यान में रखकर प्रसून गुप्ता और अंकुश शर्मा ने जनवरी 2017 में सात्विक स्नैक्स ब्रैंड सात्विको की शुरुआत की.
उनकी कंपनी रेज कलिनरी डिलाइट्स प्राइवेट लिमिटेड ने वित्तीय वर्ष 2017-18 में 18 करोड़ रुपए का सालाना टर्नओवर हासिल किया.
कंपनी में 145 लोग काम करते हैं.
एक तरफ़ जहां प्रसून ब्रैंडिंग और सेल्स का काम देखते हैं, वहीं अंकुश दिल्ली में 10,000 वर्ग फ़ीट में फैली फैैक्ट्री में ऑपरेशंस संभालते हैं.
इसी फैैक्ट्री में करीब 300 थर्ड पार्टी वेंडर्स से लिए गए खाने को पैक किया जाता है.
![]() |
प्रसून गुप्ता (बाएं) और अंकुश शर्मा के लिए सात्विको तीसरा और सबसे सफल बिजनेस है. (सभी फोटो : नवनीता) |
प्रसून बताते हैं, “पैकेज को इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि आप कहीं आते-जाते भी खा सकें. स्नैक्स कई तरह के होते हैं – जैसे खाकरा, फ्लेवर किया गया मखाना. ये सभी सिर्फ स्वास्थ्य के लिए अच्छे होते हैं और इनका स्वाद भी बेहतर होता है.”
कंपनी के सबसे सबसे मशहूर स्नैक्स हैं पान मुनक्का, जीरा वाले मूंगफली के दाने और गुड़ चना.
कंपनी के प्रॉडक्ट्स डिपार्टमेंट स्टोर्स के अलावा ऑनलाइन रीटेल स्टोर्स में भी उपलब्ध हैं.
पूरे भारत में कंपनी के 30 डिस्ट्रिब्यूटर्स हैं और उनकी लुफ्थांसा, ताज होटल के अलावा देशभर के हवाईअड्डों तक पहुंच है.
उम्मीद है कि वित्तीय वर्ष 2018-19 में कंपनी का टर्नओवर 25-30 करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा. अगले साल इसके दोगुना होने की उम्मीद है.
हालांकि इस मुकाम तक पहुंचना दोनों के लिए सहज नहीं था.
इसकी शुरुआत से पहले उनकी दो कोशिशें नाकाम हुईं और उन्हें दोनों बिजनेस बीच में छोड़ने पड़े.
32 वर्षीय प्रसून ने अंकुश और कुछ दोस्तों के साथ मिलकर स्कूली छात्रों के लिए ऑनलाइन एजुकेशन प्लेटफॉर्म टेकबडीज लांच किया था. तब वो आईआईटी रुड़की में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के आखिरी साल में थे.
प्रसून याद करते हैं, “इसके पीछे मेरे दोस्त सुरेन कुमार का तकनीकी दिमाग था, जबकि दूसरे दोस्त अभिषेक शर्मा, पवन गुप्ता, अंकुश और मैंने दूसरे पहलुओं का ध्यान रखा.”
ग्रैजुएशन के बाद साल 2009 के मध्य में वो रुड़की से दिल्ली आ गए. वो सभी फायदेमंद स्टार्टअप शुरू करना चाहते थे. इसके लिए सभी ने पचास-पचास हजार रुपए इकट्ठा किए और एक छोटा सा मकान किराए पर लिया.
प्रसून मुस्कुराते हुए याद करते हैं, “हम अपने घरों में काम करते थे लेकिन क्लाइंट से मीटिंग पड़ोसी के घर में किया करते थे.”
पहले साल कंपनी का टर्नओवर एक करोड़ रुपए रहा, लेकिन जल्द ही सुरेन ने कंपनी छोड़ दी और नौकरी कर ली. साल 2009 के अंत तक दो अन्य साथियों ने भी निजी कारणों के चलते कंपनी छोड़ दी.
![]() |
जेनपेक्ट के रमन रॉय सात्विको के मुख्य निवेशकों में से एक हैं. |
प्रसून कहते हैं, “हम जयपुर आ गए ताकि छोटे शहरों में मौके तलाश सकें, लेकिन दो लाख छात्र-छात्राओं को ट्रेंड करने और 600 फ़ैकल्टी सदस्यों, जो बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीईओ थे, के बावजूद हमें मन मुताबिक फायदा नहीं हो रहा था. इसलिए वर्ष 2013 में 50 लाख रुपए में हमने कंपनी बेच दी.”
इसके बाद जल्द ही प्रसून पूरे देश की यात्रा पर निकल गए. उन्होंने अधिकतर यात्रा सड़क से की, 28 राज्यों में घूमे. कई दूरस्थ इलाकों में भी गए.
प्रसून कहते हैं, “उस साल मैंने विचार किया कंपनी क्यों नहीं चली. उसी दौरान मुझे महसूस हुआ कि बिज़नेस कितना बड़ा है वह इस बात पर निर्भर करता है कि टर्नओवर कितना बड़ा है, न कि कंपनी के आकार पर.”
दिल्ली में उनकी अंकुश से फिर मुलाकात हुई और उन्होंने नए सिरे से बिजनेस शुरू करने का विचार किया.
बेंगलुरु में उन्हें सात्वम नामक रेस्तरां दिखा, जहां परंपरागत सात्विक खाना परोसा जाता था. उन्होंने दिल्ली में भी ऐसी ही एक चेन खोलने के बारे में सोचा.
साल के अंत तक दिल्ली में उनके आठ रेस्तरां हो गए. उन्होंने खुद 30 लाख रुपए जमा किए और परिवार व दोस्तों से डेढ़ करोड़ रुपए जुटाए.
प्रसून कहते हैं, “हम परंपरागत भारतीय खाना आधुनिक तरीके से सर्व करना चाहते थे. इसी कोशिश में हमने पैकेज्ड खाना भी रखना शुरू किया, जो बहुत हिट रहा.
“रेस्तरां अच्छा बिजनेस नहीं कर रहे थे. ऐसे में एक दिन हमारी मुलाकात बीपीओ इंडस्ट्री के पितामह और जेनपेक्ट के प्रमुख रमन रॉय से हुई. उन्होंने कहा कि अगर हम रेस्तरां बंद कर दें तो वो पैकेज्ड खाने के बिजनेस में निवेश कर सकते हैं.”
![]() |
सात्विको में 145 लोग काम करते हैं. अपने कुछ कर्मचारियों के साथ प्रसून और अंकुश.
|
इस तरह सात्विको का जन्म हुआ.
प्रसून अपनी सफलता का मंत्र बताते हैं, “सात्विको के सफ़ल होने का कारण प्रॉडक्ट में इनोवेशन है. हमने इसकी मार्केटिंग करना भी सीखा है.”
कंपनी को अब तक 30 निवेशकों से 10 लाख डॉलर का निवेश मिल चुका है. इनमें हेलिऑन के आशीष गुप्ता प्रमुख हैं. इस निवेश की बदौलत कंपनी अमेरिका, ब्रिटेन और दुबई में बिजनेस फैलाने के बारे में विचार कर रही है.
कंपनी को कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है. इनमें नैशनल एंटरप्रेन्योर अवार्ड-2017 (पांच लाख का नकद पुरस्कार), अचीवर्स ऑफ द वर्ल्ड– बिजनेस वर्ल्ड, टाइकॉन एंटरप्रेन्योरशिप अवार्ड और राजस्थान सरकार का भामाशाह अवार्ड (20 लाख रुपए नकद पुरस्कार) मिल चुका है.
आप इन्हें भी पसंद करेंगे
-
कंगाल से बने करोड़पति
एक वक्त था जब के.आर. राजा होटल में काम करते थे, सड़कों पर सोते थे लेकिन कभी अपना ख़ुद का काम शुरू करने का सपना नहीं छोड़ा. कभी सिलाई सीखकर तो कभी छोटा-मोटा काम करके वो लगातार डटे रहे. आज वो तीन आउटलेट और एक लॉज के मालिक हैं. कोयंबटूर से पी.सी. विनोजकुमार बता रहे हैं कभी हार न मानने वाले के.आर. राजा की कहानी. -
तंगहाली से कॉर्पोरेट ऊंचाइयों तक
बिकाश चौधरी के पिता लॉन्ड्री मैन थे और वो ख़ुद उभरते फ़ुटबॉलर. पिता के एक ग्राहक पूर्व अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर थे. उनकी मदद की बदौलत बिकाश एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचे पद पर हैं. मुंबई से सोमा बैनर्जी बता रही हैं कौन है वो पूर्व क्रिकेटर. -
द वीकेंड लीडर अब हिंदी में
सकारात्मक सोच से आप ज़िंदगी में हर चीज़ बेहतर तरीक़े से कर सकते हैं. इस फलसफ़े को अपना लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ने वाले देशभर के लोगों की कहानियां आप ‘वीकेंड लीडर’ के ज़रिये अब तक अंग्रेज़ी में पढ़ रहे थे. अब हिंदी में भी इन्हें पढ़िए, सबक़ लीजिए और आगे बढ़िए. -
खुद का जीवन बदला, अब दूसरों का बदल रहे
हैदराबाद के संतोष का जीवन रोलर कोस्टर की तरह रहा. बचपन में पढ़ाई छोड़नी पड़ी तो कम तनख्वाह में भी काम किया. फिर पढ़ते गए, सीखते गए और तनख्वाह भी बढ़ती गई. एक समय ऐसा भी आया, जब अमेरिकी कंपनी उन्हें एक करोड़ रुपए सालाना तनख्वाह दे रही थी. लेकिन कोरोना लॉकडाउन के बाद उन्हें अपना उद्यम शुरू करने का विचार सूझा. आज वे देश में ही डाइट फूड उपलब्ध करवाकर लोगों की सेहत सुधार रहे हैं. संतोष की इस सफल यात्रा के बारे में बता रही हैं उषा प्रसाद -
दो का दम
रोहित और विक्रम की मुलाक़ात एमबीए करते वक्त हुई. मिलते ही लगा कि दोनों में कुछ एक जैसा है – और वो था अपना काम शुरू करने की सोच. उन्होंने ऐसा ही किया. दोनों ने अपनी नौकरियां छोड़कर एक कंपनी बनाई जो उनके सपनों को साकार कर रही है. पेश है गुरविंदर सिंह की रिपोर्ट.