बास्केटबॉल खिलाड़ी ने खड़ी की 300 करोड़ की बस कंपनी
23-Nov-2024
By देवेन लाड
मुंबई
साल 1964 में चार टैक्सियों से शुरू होने वाली छोटी ट्रांसपोर्ट कंपनी का आज सालाना 300 करोड़ रुपए का कारोबार है.
यह कंपनी है प्रसन्ना पर्पल मोबिलिटी सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड, जिसे प्रसन्ना पर्पल के नाम से भी जाना जाता है.
आज कंपनी के पास 1,200 से ज़्यादा बस और कार का बेड़ा है, जो भारत के 85 शहरों में चलती हैं.
इनमें से कंपनी 700 बसों की मालिक है.
घुटने में चोट के बाद राष्ट्रीय बास्केटबॉल खिलाड़ी प्रसन्ना पटवर्धन अपने पिता के ट्रेवल्स के बिज़नेस में आ गए और इसे 300 करोड़ सालाना का कारोबार बना दिया. (फ़ोटो - अनिरुद्ध राजनदेकर)
|
प्रसन्ना पर्पल के चेयरमैन एंड मैनेजिंग डायरेक्टर प्रसन्ना पटवर्धन एक ज़माने में महाराष्ट्र बास्केटबॉल टीम के कैप्टन हुआ करते थे. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भारत का भी प्रतिनिधित्व किया था. यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व में आज भी झलकता है.
उनके पिता ने कंपनी का नाम उनके नाम पर रखा था. आज प्रसन्ना तीन कंपनियां चलाते हैं - मूल कंपनी प्रसन्ना पर्पल मोबिलिटी सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड (इंटरसिटी ऐंड सिटी बस पैसेंजर ट्रांसपोर्ट, कॉर्पोरेट ऐंड स्कूल मोबिलिटी, डोमेस्टिक ऐंड इंटरनेशनल हॉलीडे पैकेजेस), और दो सहयोगी कंपनियां, प्रसन्ना ट्रांसपोर्ट नेटवर्क प्राइवेट लिमिटेड (गुड्स ट्रांसपोर्ट) एंड स्माइलस्टोन मोटल्स प्राइवेट लिमिटेड.
इन सबमें प्रसन्ना पर्पल की पार्टनर है अंबित प्रैग्मा. यह एक निजी इक्विटी कंपनी है. इसने प्रसन्ना पर्पल में 2009 में निवेश किया था और यह मूल कंपनी में 64 प्रतिशत की मालिक है.
साल 2010 में प्रसन्ना ट्रैवल्स को आधुनिक रंगरूप देने के लिए अपना नाम बदलकर प्रसन्ना पर्पल कर दिया.
प्रसन्ना पटवर्धन की कहानी उन लोगों के लिए प्रेरणादायक साबित होगी, जो न केवल अपना पारिवारिक बिज़नेस संभाल रहे हैं, बल्कि उसे विस्तार देकर सफलतापूर्वक कई गुना बढ़ाना चाहते हैं.
प्रसन्ना का जन्म 1962 में पुणे के एक संयुक्त परिवार में हुआ. परिवार में 24 लोग एक ही छत के नीचे रहते थे. उनका पालन-पोषण ठेठ मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में हुआ.
उन्होंने नूतन मराठी स्कूल में पढ़ाई की और फ़र्गुसन से विज्ञान में ग्रैजुएशन किया. उसके बाद उन्होंने सिम्बॉयोसिस से मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रैजुएशन किया.
प्रसन्ना कहते हैं, “मेरे अंकल का एक रेस्तरां और डेरी बिज़नेस था. उनके रेस्तरां वाडेश्वर की अब कई ब्रांच हैं, लेकिन मैं जब छोटा था तब उसकी सिर्फ़ एक ब्रांच थी.”
प्रसन्ना पर्पल में 3000 ड्राइवर काम करते हैं, लेकिन शुरुआती दिनों में ड्राइवर उपलब्ध न होने पर प्रसन्ना को भी बस चलाना पड़ी थी.
|
प्रसन्ना कहते हैं, “उनके पिता की टैक्सी सर्विस थी. उनका एकमात्र क्लाइंट पुणे विश्वविद्यालय था, जो उनकी टैक्सी का इस्तेमाल प्रोफ़ेसर और विज़िटिंग फ़ैकल्टी को लाने ले-जाने के लिए करता था. हमें उससे ठीकठाक पैसा मिल जाता था.”
उनके पिता केशव वामन पटवर्धन पुणे विश्वविद्यालय के एकमात्र कांट्रैक्टर थे. इसलिए सारा बिज़नेस उनके पास आता था.
“साल 1985 में विश्वविद्यालय के कुलपति ने सभी प्रोफ़ेसर से टैक्सी का इस्तेमाल करने के बजाय कारपूल करने को कहा. उन्होंने कहा कि वो टैक्सी तभी बुलाएंगे, जब उसकी ज़रूरत पड़ेगी. इससे हमारे बिज़नेस पर बहुत असर पड़ा. अब हमारे पास कोई क्लाइंट नहीं था.”
वह प्रसन्ना ट्रैवल्स के लिए बुरा वक्त था और कंपनी बंद होने की कगार पर थी. बिज़नेस ठप होने का मतलब था घर की आमदनी पर असर पड़ना.
प्रसन्ना कहते हैं, “तब मुझे एहसास हुआ कि मुझे मदद के लिए आगे आना चाहिए.”
प्रसन्ना ने उसी साल मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी की थी. दिसंबर 1985 से उन्होंने प्रसन्ना ट्रैवल्स में पिता का हाथ बंटाना शुरू कर दिया.
ऐसा नहीं था कि प्रसन्ना जीवन में यही करना चाहते थे. दरअसल वो खेल की दुनिया में जाना चाहते थे.
उन्होंने बास्केटबॉल में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. वो महाराष्ट्र टीम के कैप्टन और बाद में कोच रह चुके थे. लेकिन घुटने में चोट के कारण वो आगे नहीं बढ़ पाए.
वो चोट को छुपा वरदान बताकर हंसते हुए कहते हैं, “अगर मैं बास्केटबॉल खेलता रहता तो यह सब नहीं हुआ होता और शायद करियर के अंत में मैं रेलवे में टीसी (टिकट कलेक्टर) की नौकरी कर रहा होता.”
पापा के बिज़नेस में शामिल होने के बाद उन्होंने ऑफ़िस को नया रंग-रूप दिया और फ़ियाट व एंबैसडर कारों को सजाया-संवारा.
प्रसन्ना याद करते हैं, “सब कुछ नया बनाने में मुझे छह महीने लगे. मैंने हर कार पर क़रीब पांच हज़ार रुपए ख़र्च किए ताकि सबमें एसी, पर्दे, म्यूज़िक सिस्टम, अख़बार, पानी की बोतल रहे और ड्राइवर युनिफ़ॉर्म पहने हुए हों.”
वो कहते हैं, “पहले सिर्फ़ युनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर हमारी कार इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब हमने कॉर्पोरेट क्लाइंट ढूंढने शुरू किए.”
प्रसन्ना ट्रेवल्स का आज देश के 10 शहरों में कामकाज है.
|
मेहनत रंग लाई. रंग-रोगन की गई कारों और नए ग्राहकों के बलबूते प्रसन्ना ट्रेवल्स का कारोबार दोगुना और तिगुना हो गया. जहां 1985 में कंपनी की सालाना आमदनी तीन लाख रुपए हुआ करती थी, अगले 10 सालों यानी 1995 में यह 10 करोड़ पहुंच गई.
शुरुआती दिनों के संघर्ष के बारे में प्रसन्ना कहते हैं, “चूंकि मैं मैनेजमेंट का छात्र था, इसलिए बिज़नेस के पहलुओं के बारे में जानता था. लेकिन नए क्लाइंट ढूंढना आसान नहीं था. मैं किसी भी दफ़्तर में जाता और पूछता कि क्या आपको टैक्सी सर्विस चाहिए. मैं कंपनी के वॉचमैन को अपना कार्ड इस उम्मीद में देता कि कभी न कभी तो यह कार्ड सही आदमी तक पहुंचेगा.”
फ़िलिप्स उनका पहला क्लाइंट था. फिर टेल्को भी उस सूची में शामिल हुई. धीरे-धीरे बिज़नेस बढ़ने लगा और क्लाइंट सूची में कई बड़े नाम शामिल हो गए.
हर साल कारोबार बढ़ता गया, और कंपनी नई गाड़ियां और टेंपो ख़रीदती गई.
साल 1988 में प्रसन्ना ने पहली बस सर्विस शुरू की, जब उन्होंने 10 लाख रुपए में एक एअरकंडीशंड बस ख़रीदी.
उन्होंने 25 टैक्सी और छह टेंपो में से चार कारें और दो टेंपो बेच दीं.
प्रसन्ना याद करते हैं, “हमने महाबलेश्वर से पुणे बस सेवा शुरू की लेकिन वो नहीं चली. फिर हमने जलगांव की संगीतम ट्रैवल्स के साथ साझेदारी में पुणे-जलगांव बस सेवा शुरू की, जिसमें दोनों तरफ़ एक-एक बस का इस्तेमाल हुआ. यह सेवा चल निकली, जिससे हमें अच्छा मुनाफ़ा हुआ.”
अगले चार सालों में प्रसन्ना ने कोल्हापुर-पुणे, अकोला-पुणे और बंगलुरु-पुणे मार्ग पर भी बस सेवाएं शुरू कीं.
जल्द ही बस सेवा प्रसन्ना ट्रैवल्स का मुख्य बिज़नेस बन गई. साल 2009 में अंबित प्रैग्मा ने कंपनी में निवेश किया.
उसी साल प्रसन्ना ने जलगांव (महाराष्ट्र) और इंदौर (मध्य प्रदेश) में स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के अंतर्गत इंटरसिटी बस सेवाएं शुरू कीं.
जल्द ही प्रसन्ना ट्रैवल्स ने जवाहरलाल नेहरू नैशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन के तहत अपना कारोबार पुणे, लुधियाना, दिल्ली और अहमदनगर समेत 10 शहरों जैसे फैला लिया. इस मिशन के तहत पीपीपी सेक्टर में साझेदारी संभव थी.
प्रसन्ना कार्यकुशल व्यक्ति हैं और बाहर का कामकाज भी ख़ुद देखते हैं.
|
आजकल कंपनी की ज़्यादातर कमाई छोटी इंटरसिटी बस सेवाओं से होती है. क्योंकि लंबी दूरी के लिए लोग हवाई यात्रा पसंद करते हैं.
प्रसन्ना कहते हैं, “शहरों के बीच बस सेवाओं के लिए हम ड्राइवर मुहैया करवाते हैं, जबकि राज्य सरकार कंडक्टर देती है. इस तरह यह बिज़नेस मुनाफ़ा देता है लेकिन टोल टैक्स और ईंधन के बढ़ते दाम के कारण मुनाफ़े पर असर पड़ा है.”
प्रसन्ना ने अपने जीवन में किसी काम को छोटा नहीं समझा. उन्होंने हर काम की पहल की और उसे ज़िम्मेदारी से पूरा किया.
प्रसन्ना याद करते हैं, “साल 1988 में एक बार मैं तीन दिनों तक बस जलगांव तक चलाकर ले गया, क्योंकि ड्राइवर उपलब्ध नहीं था. हमने जलगांव तक पैसेंजर बुक कर रखे थे इसलिए मैंने ड्राइविंग का काम संभाला. लेकिन जब आप कंपनी चलाते हैं तब ऐसी चुनौतियां पेश आती हैं.”
वो बस ड्राइवर नहीं थे, लेकिन खाली समय में उन्होंने ड्राइवरों से बस चलाना सीख लिया था.
वो मुस्कुराते हुए कहते हैं, “आज मेरे पास 3,000 ड्राइवर हैं. उस दिन एक भी ड्राइवर नहीं था.”
प्रसन्ना ट्रैवल्स ने अपने ड्राइवरों को ट्रेंड करने के लिए ड्राइविंग स्कूल भी खोला है. गोवा और दिल्ली में पर्यटकों के लिए उनकी ‘हॉप ऑन हॉप ऑफ़’ सेवाएं भी हैं.
उम्मीद है कि जल्द ही यह सेवा मुंबई में बेस्ट (बॉम्बे इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट कॉर्पाेरेशन) के साथ भी शुरू होगी, लेकिन अभी इस पर निर्णय होना बाक़ी है.
प्रसन्ना कई देश घूम चुके हैं. उनका सोचना है कि भारत में सार्वजनिक परिवहन सेवाएं अंतरराष्ट्रीय मानकों तक पहुंच सकती हैं.
वो कहते हैं, “हमारी सरकार सार्वजनिक परिवहन पर ज़्यादा ध्यान नहीं देती, जबकि यह सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए. लोगों को भी अपनी कार की बजाय इसका इस्तेमाल करना चाहिए.”
प्रसन्ना अपने बिज़नेस में ज़्यादा तकनीक का इस्तेमाल करना चाहते हैं और यात्रियों को जीपीएस ट्रैकिंग जैसी सुविधाएं देना चाहते हैं.
खिलाड़ी के तौर पर हासिल की गई योग्यताओं का प्रभावी रूप से इस्तेमाल कर प्रसन्ना अपने कारोबारी साथियों के बीच बेहतर साबित होते हैं.
|
साल 1986 में उनकी मोनिका से शादी हुई और उनके दो बेटे हैं.
उनका बड़ा बेटा सौरभ कंपनी का कार्गो बिज़नेस संभालता है, जबकि दूसरा हर्षवर्धन की ख़ुद की जूते-चप्पलों के निर्माण का इकाई है.
प्रसन्ना को जब भी दूसरे देशों का सार्वजनिक परिवहन समझना होता है, वो दुनियाभर का दौरा करते हैं, ताकि भारत में अपनी सेवाओं को अपडेट किया जा सके.
उन्होंने ज़्यादातर बिज़नेस रणनीतियां खेल से सीखी हैं, जहां कोई भी लंबे समय तक दोस्त या दुश्मन नहीं होता.
वो कहते हैं, “मैं अब बास्केटबॉल नहीं खेलता, लेकिन उसने मुझे ज़िंदगी में बहुत कुछ सिखाया है. जब मैं महाराष्ट्र के लिए खेल रहा था, तब दूसरे राज्यों के खिलाड़ी मेरे विरोधी हुआ करते थे. जब मैंने नैशनल लेवल पर खेलना शुरू किया, वो सब मेरे साथी बन गए.”
वो कहते हैं, “चाहे आप बॉस हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहां है.”
आप इन्हें भी पसंद करेंगे
-
फर्नीचर के फरिश्ते
आवश्यकता आविष्कार की जननी है. यह दिल्ली के गौरव और अंकुर कक्कड़ ने साबित किया है. अंकुर नए घर के लिए फर्नीचर तलाश रहे थे, लेकिन मिला नहीं. तभी देश छोड़कर जा रहे एक राजनयिक का लग्जरी फर्नीचर बेचे जाने के बारे में सुना. उसे देखा तो एक ही नजर में पसंद आ गया. इसके बाद दोनों ने प्री-ओन्ड फर्नीचर की खरीद और बिक्री को बिजनेस बना लिया. 3.5 लाख से शुरू हुआ बिजनेस 14 करोड़ का हो चुका है. एकदम नए तरीका का यह बिजनेस कैसे जमा, बता रही हैं उषा प्रसाद. -
‘हेलमेट मैन’ का संघर्ष
1947 के बंटवारे में घर बार खो चुके सुभाष कपूर के परिवार ने हिम्मत नहीं हारी और भारत में दोबारा ज़िंदगी शुरू की. सुभाष ने कपड़े की थैलियां सिलीं, ऑयल फ़िल्टर बनाए और फिर हेलमेट का निर्माण शुरू किया. नई दिल्ली से पार्थो बर्मन सुना रहे हैं भारत के ‘हेलमेट मैन’ की कहानी. -
‘अंत्येष्टि’ के लिए स्टार्टअप
जब तक ज़िंदगी है तब तक की ज़रूरतों के बारे में तो सभी सोच लेते हैं लेकिन कोलकाता का एक स्टार्ट-अप है जिसने मौत के बाद की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर 16 लाख सालाना का बिज़नेस खड़ा कर लिया है. कोलकाता में जी सिंह मिलवा रहे हैं ऐसी ही एक उद्यमी से - -
गांवों को रोशन करने वाले सितारे
कोलकाता के जाजू बंधु पर्यावरण को सहेजने के लिए कुछ करना चाहते थे. जब उन्होंने पश्चिम बंगाल और झारखंड के अंधेरे में डूबे गांवों की स्थिति देखी तो सौर ऊर्जा को अपना बिज़नेस बनाने की ठानी. आज कई घर उनकी बदौलत रोशन हैं. यही नहीं, इस काम के जरिये कई ग्रामीण युवाओं को रोज़गार मिला है और कई किसान ऑर्गेनिक फू़ड भी उगाने लगे हैं. गुरविंदर सिंह की कोलकाता से रिपोर्ट. -
खुद का जीवन बदला, अब दूसरों का बदल रहे
हैदराबाद के संतोष का जीवन रोलर कोस्टर की तरह रहा. बचपन में पढ़ाई छोड़नी पड़ी तो कम तनख्वाह में भी काम किया. फिर पढ़ते गए, सीखते गए और तनख्वाह भी बढ़ती गई. एक समय ऐसा भी आया, जब अमेरिकी कंपनी उन्हें एक करोड़ रुपए सालाना तनख्वाह दे रही थी. लेकिन कोरोना लॉकडाउन के बाद उन्हें अपना उद्यम शुरू करने का विचार सूझा. आज वे देश में ही डाइट फूड उपलब्ध करवाकर लोगों की सेहत सुधार रहे हैं. संतोष की इस सफल यात्रा के बारे में बता रही हैं उषा प्रसाद