कैलकुलेटर रिपेयरिंग से करोड़ों की क्विक हील कंपनी बनाने की कहानी
03-Dec-2024
By प्राची बारी
पुणे
किशोरावस्था में कैलकुलेटर सुधारने से शुरुआत कर 350 करोड़ रुपए की वैश्विक सॉफ़्टवेयर कंपनी का मालिक बनना - यह कहानी है 50 वर्षीय कैलाश काटकर की.
क्विक हील टेक्नोलॉजी का नया दफ़्तर पुणे के मशहूर मार्वल एज़ ऑफ़िस कॉम्प्लेक्स की सातवीं और आठवीं मंज़िल पर है.
कैलाश और संजय साहेबराव काटकर बंधुओं ने चंद पैसों से 350 करोड़ रुपए के कारोबार वाली क्विक हील टेक्नोलॉज़ीस कंपनी खड़ी की है. (सभी फ़ोटो: एम फ़हीम)
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कैलाश और संजय साहेबराव काटकर बंधुओं ने अपनी कई रातें मैलवेयर के ख़तरों या कंप्यूटर वायरस से जूझने में गुज़ार दी हैं.
क्विक हील टेक्नोलॉज़ीस की टीम लगातार नई तकनीकों पर काम कर रही है, ताकि इन ख़तरों के बारे में चेतावनियां जारी की जा सकें, उनकी पहचान की जा सके और उन्हें ख़त्म किया जा सके.
कंपनी प्रमुख कैलाश काटकर को लोग केके के नाम से जानते हैं. वो आज बेहद व्यस्त हैं. लोग लगातार उनसे मिलने जा रहे हैं, या मिलकर लौट रहे हैं. साफ है कैलाश अब सफलता का कोड जान चुके हैं. इसी कोड को जानने मैं उनके दफ़्तर पहुंची. कुछ देर इंतज़ार के बाद मेरी दोनों भाइयों से मुलाक़ात हुई.
केके शांत, गंभीर नज़र आए, हालांकि वो संजय से ज़्यादा बात करते हैं. संजय नए जमाने के तकनीकी पुरुष की भूमिका में थे और स्मार्ट कैज़ुअल पहने हुए थे.
दोनों भाई ज़मीन से जुड़े हैं और उनमें बेहद दोस्ताना संबंध हैं.
केके अपनी सफ़लता को पैसे से नहीं मापते.
वो कहते हैं, “जब सभी लोग मदद की उम्मीद से आपके प्रॉडक्ट की ओर देखते हैं तब आपको एहसास होता है कि आपने ज़िंदगी में कुछ हासिल किया है.”
केके का जन्म सतारा के नज़दीक लालगुन गांव में हुआ. उनका परिवार जल्द ही पुणे आ गया, जहां उनके पिता फ़िलिप्स कंपनी में मशीन-सेटर के तौर पर काम करते थे.
कक्षा 10 के ठीक बाद ही कैलाश ने पढ़ाई छोड़ दी; उन्हें लगा कि वो परीक्षा पास नहीं कर पाएंगे. हालांकि बाद में मालूम हुआ कि वो पास हो गए थे.
कैलाश कहते हैं, “तीन महीने में ही मुझे 400 रुपए महीने की तनख़्वाह पर कैलकुलेटर सुधारने की नौकरी मिल गई. मैं रेडियो और टेपरिकॉर्डर ठीक करने में माहिर था. मैंने घर में पिताजी को रेडियो की मरम्मत करते देखा था. उन्हें देखते-देखते मैं यह काम सीख गया था.”
जब केके ने काम करना शुरू किया, तब उनका परिवार शिवाजीनगर के तानाजी वाडी की एक चॉल में रहता था. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन वो एक सॉफ़्टवेयर कंपनी के मालिक बनेंगे. हालांकि उन्होंने बिज़नेस शुरू
करने का सपना ज़रूर देखा था.
वो कहते हैं, “अस्सी के दशक में कैलकुलेटर तकनीक नई थी. मैं और नई चीज़ें सीखना चाहता था. हालांकि मेरा मुख्य काम कैलकुलेटर तकनीशियन का था, मैंने बिज़नेस के कई गुर सीखे- जैसे ग्राहकों को कैसे डील किया जाए, अकाउंट्स कैसे रखे जाएं आदि.”
केके की उम्र 22 साल की थी, जब उन्होंने पहली बार बैंक में एक कंप्यूटर देखा. वो बैंक में कैलकुलेटर सुधारने गए थे.
वो याद करते हैं, “मैंने वहां शीशे के कमरे में टीवी जैसी चीज़ देखी. मैं उसे देखकर उत्सुक हुआ और पूछ बैठा कि वो क्या है. मुझे बताया गया कि वो एक कंप्यूटर है.”
कैलाश ने दसवीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी. उन्हें 400 रुपए महीने की तनख़्वाह पर कैलकुलेटर सुधारने की नौकरी मिल गई.
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जल्द ही उन्हें पता चल गया कि यह ‘टीवी’ जैसी चीज़ ही भविष्य है. उधर बैंक के कर्मचारी हड़ताल की योजना बना रहे थे, क्योंकि उन्हें डर था कि इस उपकरण से उनकी नौकरियां चली जाएंगी.
लेकिन केके डरे नहीं.
वो कहते हैं, “उनकी प्रतिक्रिया देखकर लगा कि मुझे इस कंप्यूटर के बारे में हर चीज़ जाननी चाहिए. मैं हमेशा से नई चीज़ों के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहता था.”
बचाए गए थोड़े से पैसों से उन्होंने कंप्यूटर संबंधी किताबें ख़रीदीं और जितना पढ़ सकते थे, पढ़ गए.
अब उन्होंने अब तक की पढ़ाई को आज़माने का विचार किया. जब बैंक का कंप्यूटर ख़राब हो गया तो वो बैंक गए और कहा कि उन्हें कंप्यूटर ठीक करने दिया जाए.
वो याद करते हैं, “मैंने विनती की कि मुझे कोशिश करने दी जाए. उससे पहले मैं लेज़र मशीन ठीक कर चुका था, जो कंप्यूटर से बड़ी और चौड़ी होती थी. कई मिन्नतों के बाद मैनेजर ने मुझे मशीन की जांच करने की इजाज़त दे दी. जल्द ही कंप्यूटर दोबारा काम करने लगा.”
यह देखकर बैंक मैनेजर बहुत प्रभावित हुए. उसके बाद जब भी बैंक का कोई कंप्यूटर ख़राब होता तो केके को ही बुलाया जाने लगा. उनके हाथों में जैसे जादू था.
टीवी और दूसरी मशीनें ठीक करते-करते उनकी मासिक तनख्वाह दो हज़ार रुपए तक पहुंच गई.
वो कहते हैं, “मैं अपने भाई संजय को एक ऐसेट की तरह देखता हूं; वो स्मार्ट, समझदार हैं और पढ़े-लिखे भी.”
संजय अब कंपनी के संयुक्त प्रबंध निदेशक और सीटीओ हैं.
दोनो भाइयों में चार साल का फ़र्क़ है. घर पर संजय केके को “दादा” कहकर बुलाते हैं, लेकिन दफ़्तर में वो सबके लिए केके हैं.
कक्षा 12 के बाद संजय भी पढ़ाई छोड़ना चाहते थे, लेकिन केके ने उन्हें पढ़ाई जारी रखने की सलाह दी, क्योंकि उन्हें औपचारिक पढ़ाई पूरी न कर पाने का पश्चाताप होता था.
संजय कहते हैं, “मैं इलेक्ट्रॉनिक्स की पढ़ाई करना चाहता था और केके के साथ हार्डवेयर व्यापार से जुड़ना चाहता था, लेकिन उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं सॉफ़्टवेयर की पढ़ाई करूं. देखिए आज वो सलाह कितनी काम आ रही है.”
कंप्यूटर की पढ़ाई की फ़ीस 5,000 रुपए थी, जो परिवार के लिए बहुत ज़्यादा थी, लेकिन कैलाश ने अपनी अपनी कमाई बढ़ाने के लिए मंगलवार पेठ में एक छोटी सी दुकान खोल ली.
कार्यस्थल पर केके और संजय भाइयों की अपेक्षा दोस्त अधिक लगते हैं.
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केके याद करते हैं, “मरम्मत के काम से मेरे पास इतना पैसा आ जाता था कि मैं नई मशीनों में निवेश कर सकूं. मेरी मां हमेशा मुझसे घर में निवेश करने को कहती थीं, लेकिन मैंने घर 2002 में ख़रीदा. मेरा काम मेरी पहली प्राथमिकता थी. मैंने अपना पहला कंप्यूटर 50,000 रुपए में ख़रीदा और उसे गर्व से अपनी दुकान में रख दिया. यह पहला मौक़ा था, जब मैं बिलिंग के लिए कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहा था. लोग सिर्फ़ उस मशीन को देखने मेरी दुकान पर आया करते थे.”
उधर संजय दुकान के आसपास मंडराया करते थे और कंप्यूटर से खेला करते थे. वो मॉडर्न कॉलेज में सॉफ़्टवेयर की पढ़ाई कर रहे थे. वो कॉलेज में डीबगिंग यानी कंप्यूटर से वायरस हटाना सीख चुके थे, इसलिए वो कंप्यूटर के ख़राब होते ही वायरस से खेला करते थे.
कॉलेज में 10 में से चार या पांच कंप्यूटर हमेशा वायरस हमले के कारण ख़राब रहा करते थे, इसलिए उन्हें कंप्यूटर ठीक करने की प्रैक्टिस हो गई थी.
केके याद करते हैं, “संजय और मैंने एक-दूसरे को हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर की बारीक़ियां समझाईं.”
संजय कहते हैं, “वायरस से खेलते-खेलते मैंने डॉस (डीओएस) में नए प्रोग्राम बनाए और फिर मैं ख़ुद ही वायरस ख़त्म करने लगा. चूंकि उस दौरान हमारे पास इंटरनेट नहीं था, इसलिए वायरस इतने ज़्यादा नहीं थे.”
तब केके ने संजय को सुझाव दिया कि वो कंप्यूटर वायरस से बचने के लिए किसी प्रोग्राम की रचना करने पर ध्यान केंद्रित करें. इससे कंप्यूटर वायरस की समस्या से जूझ रहे ग्राहकों को मदद मिलेगी.
जब संजय मास्टर्स के दूसरे साल में थे, तभी उन्होंने अपना पहला एंटी-वायरस प्रोग्राम लिखा.
अगले तीन या चार सालों में उन्होंने एंटी-वायरस सॉफ़्टवेयर का एक सेट विकसित किया, जो वायरस से प्रभावित कंप्यूटर को ठीक कर देता था.
कैलाश ने सॉफ़्टवेयर के कलेक्शन का इस्तेमाल अपनी दुकान में कंप्यूटरों की मरम्मत में करना शुरू कर दिया.
1995 में कैलाश ने फ़ैसला किया कि वो एंटी-वायरस सॉफ़्टवेयर का व्यावसायिक इस्तेमाल करेंगे.
संजय ने अपनी कंपनी का संस्कृत में रखने की बजाय अंग्रेजी नाम ‘क्विक हील’ रखने को वरीयता दी. वे इसे वैश्विक ब्रैंड बनाना चाहते थे.
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इसके साथ-साथ उन्होंने संजय को प्रेरित किया कि वो ऐसे छोटे-छोटे सॉफ़्टवेयर बनाएं जो अलग-अलग तरह के वायरस से कंप्यूटर को बचाए.
साल के अंत तक संजय ने क्विक हील एंटी वायरस का पहला संस्करण तैयार कर लिया.
केके कहते हैं, “मैंने संजय के कहने पर इसका नाम क्विक हील रखा. मैं इसका नाम संस्कृत भाषा में रखना चाहता था, लेकिन संजय ने ज़ोर देकर कहा कि वो इस प्रोग्राम को दुनियाभर में ले जाना चाहते थे इसलिए क्विक हील बेहतर नाम था.”
संजय ने जो प्रोग्राम तैयार किया था, उससे कंप्यूटर को न सिर्फ़ वायरस से बचाने में मदद मिलती थी, बल्कि वो प्रोग्राम कंप्यूटर की सफ़ाई भी कर देता था, इसलिए क्विक हील ने जल्द ही बाज़ार में अपनी धाक जमा ली.
संजय कहते हैं, “क्विक हील वास्तव में कंप्यूटर को स्वस्थ बना रहा था.”
उन्होंने कंपनी का नाम कैट कंप्यूटर्स सर्विसेज़ (सीएटी) रखा. कैट दोनों भाइयों का उपनाम था.
कैट उनके सरनेम काटकर का छोटा नाम भी था.
वर्ष 1995 में डॉस के लिए उनका प्रॉडक्ट क्विक हील एंटीवायरस बाज़ार में आया.
इसकी सफ़लता के बाद वर्ष 2007 में कंपनी ने अपना आधिकारिक नाम क्विक हील टेक्नोलॉज़ीस प्राइवेट लिमिटेड रख लिया.
आज सीमैंटेक, नॉरटॉन, मैकफ़ी, कास्पेरेस्की और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भारत में मौजूदगी के बावजूद कंज़्यूमर व स्माल ऑफ़िस कैटेगरी में क्विक हील मार्केट लीडर है. एंटी-वायरस सॉफ़्टवेयर बाज़ार का 30 प्रतिशत से अधिक हिस्सा क्विक हील के पास है.
कंपनी अब विदेश में भी अपने पांव पसार रही है.
वर्ष 1995 से आज तक कंपनी ने लंबा सफ़र तय किया है. उस वक्त क्विक हील का पहला वर्ज़न 500 रुपए में बिका था.
पहले दिन से ही संजय प्रॉडक्ट के विकास व तकनीकी पहलुओं पर ध्यान देते हैं जबकि केके मार्केटिंग, अकाउंट्स और ग्राहकों पर.
केके कहते हैं, “हमने बहुत जल्द ही अपने विभाग अलग कर लिए थे. हम एक-दूसरे से बातचीत करते हैं, बहस भी करते हैं लेकिन कभी एक-दूसरे पर चिल्लाते नहीं हैं.”
भारत में छोटे व्यापारियों को अभी भी कोई सामान बेचने के लिए उनके साथ बैठकर समझाना होता है, इसलिए केके की कोशिश है कि देश में एक बड़ा और भरोसेमंद नेटवर्क क़ायम किया जाए.
संजय (बाएं) उत्पाद के विकास और तकनीकी पहलुओं पर ध्यान देते हैं, जबकि केके मार्केटिंग, अकाउंट्स और ग्राहकों को संभालते हैं.
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उन्होंने कस्टमर सपोर्ट पर भी बहुत निवेश किया है. उनके इंजीनियर घरों में कंप्यूटर ठीक करने जाते हैं. आमतौर पर एंटी-वायरस सॉफ़्टवेयर बनाने वाली कंपनियां ऐसा नहीं करतीं.
इससे उनकी कंपनी को बहुत मदद मिलती है. ख़ासकर छोटे शहरों में, जहां लोग अंतरराष्ट्रीय एंटी-वायरस ब्रैंड्स से परिचत नहीं हैं.
वर्ष 2010 में सेक्वोइया कैपिटल ने उनकी कंपनी में 60 करोड़ रुपए निवेश किए.
दो साल में इस पैसे का उपयोग तमिलनाडु, जापान, अमेरिका, अफ्रीका और यूएई में दफ़्तर खोलने में किया गया.
आज क्विक हील 80 से अधिक देशों में मौजूद है. वर्ष 2011 में कंपनी ने उद्यमी ग्राहकों के लिए सिक्योरिटी सॉफ़्टवेयर विकसित करने की शुरुआत की.
वर्ष 2013 में कंपनी ने कंप्यूटर और सर्वर्स के लिए पहला इंटरप्राइज़्ड ऐंडप्वाइंट सिक्योरिटी सॉफ़्टवेयर बाज़ार में उतारा.
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