Milky Mist

Saturday, 20 April 2024

सिनेमा हॉल से शुरू हुई बॉलीवुड फ़िल्मों जैसी सफलता की कहानी

20-Apr-2024 By Masuma Bharmal Jariwala
Rajkot

Posted 27 Dec 2017

बालाजी वेफ़र्स प्राइवेट लिमिटेड के 60 वर्षीय संस्थापक और निदेशक चंदूभाई वीरानी ने 1982 में आलू वेफ़र्स (चिप्स) बनाना शुरू किया.


10,000 रुपए के छोटे से निवेश से घर के बरामदे में छप्पर के नीचे यह काम शुरू हुआ.
 

धीरे-धीरे उन्होंने एक कंपनी खड़ी की और वर्ष 2017 में इस कंपनी का कुल कारोबार 1,800 करोड़ रुपए का रहा.
 

बालाजी वेफ़र्स अपने क्षेत्र की सबसे बड़ी आलू वेफ़र कंपनी और स्नैक ब्रैंड है.
 

इसके साथ ही यह भारत की दूसरी सबसे बड़ी पोटैटो वेफ़र कंपनी है.
 

इसने शुरुआत बहुत छोटे रूप में की थी.

सादगीपूर्ण शुरुआत: बालाजी वेफ़र्स प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक और निदेशक चंदूभाई वीरानी आलू की चिप्स बनाने से पहले एक सिनेमा हॉल के कैंटीन में काम किया करते थे.

गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में केंद्रित होने के बावजूद कंपनी की पहुंच पूरे भारत में है. इसका श्रेय कंपनी के मज़बूत डिस्ट्रिब्यूशन नेटवर्क को जाता है.
 

बालाजी वेफ़र्स प्राइवेट लिमिटेड राजकोट से 20 किलोमीटर दूर वाजडी (वाड) गांव में स्थित है.
 

50 एकड़ में फैली फ़ैक्ट्री के परिसर में प्रवेश करते ही सामने भगवान बालाजी का एक छोटा मंदिर नज़र आता है.
 

यह मंदिर इस बात का प्रमाण है कि कंपनी के मालिकों की भगवान बालाजी में कितनी आस्था है. कंपनी के ब्रैंड का नाम ‘बालाजी’ भी यहीं से आया है.


फ़ैक्ट्री के मैदान में 2,000 पेड़-पौधे, क़रीब 100 गायें, जल उपचार और बायोगैस प्लांट है, लेकिन कहीं भी कंपनी के नाम का बोर्ड या ब्रैंड पेंटिंग नहीं है.
 

इस रिकॉर्ड ब्रेकिंग फ़ैक्ट्री की शुरुआत 2003 में हुई. उस वक्त यह प्लांट प्रति घंटे 5,000 किलो आलू प्रोसेस करता था.
 

यह वर्ष 1972 की बात है। चंदूभाई के पिता स्वर्गीय पोपट रामजीभाई वीरानी एक साधारण किसान थे. उन्होंने तीनों बेटों - मेघजीभाई, भीखूभाई और चंदूभाई को 20,000 रुपए दिए और समझदारी से निवेश करने को कहा.
 

उस वक्त परिवार राजकोट से 79 किलोमीटर दूर जामनगर जिले के ढुंडोरजी इलाक़े में रहता था और चंदूभाई महज 15 साल के थे.

उनके बड़े भाइयों ने खेती के औज़ार और खाद में निवेश किया, लेकिन उनका सारा पैसा बर्बाद हो गया.
 

ख़राब मॉनसून और उसके बाद के भीषण सूखे से परेशान तीन भाई 1974 में राजकोट आ गए, जबकि सबसे छोटे कानुभाई अपने माता-पिता और दो बहनों के साथ ही घर पर ही रह गए.
 

चंदूभाई 10वीं कक्षा पास थे और उन्हें ऐस्ट्रॉन सिनेमा में नौकरी मिल गई. हालांकि उनका मुख्य काम कैंटीन में खाना परोसना था, लेकिन उन्होंने फ़िल्मों के पोस्टर चिपकाने, घर की रखवाली करने जैसे काम भी किए। इनके लिए उन्हें हर महीने 90 रुपए मिलते थे.
 

चंदूभाई बताते हैं, ”रात में शो के बाद मैं फटी सीटों की मरम्मत करता था. उसके बदले मुझे एक प्लेट चोराफ़ारी (गुजराती नाश्ता) और चटनी मिल जाती थी.“


”हम एक किराए के मकान में रहते थे. एक दिन हम सब घर से भाग गए, क्योंकि हमारे पास किराया देने के लिए 50 रुपए नहीं थे.“ (बाद में उन्होंने मकान मालिक को किराया चुका दिया.)


चंदूभाई के लिए कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं था.
 

एक साल बाद उनके काम से ख़ुश होकर सिनेमा कैंटीन के मालिक ने उन्हें और उनके भाइयों को 1,000 रुपए किराए पर कॉन्ट्रैक्ट दे दिया.

10वीं पास चंदूभाई वीरानी बिज़नेस स्कूलों में एक लोकप्रिय वक्ता हैं.

 

भाइयों ने कैंटीन में अलग-अलग तरह की चीज़ें बेचनी शुरू कर दीं, जिनमें आलू वेफ़र्स शामिल थे. ये वेफ़र्स एक सप्लायर से ख़रीदे जाते थे, जो हमेशा माल भेजने में देरी करता था.


इसका असर सिनेमा हॉल की कमाई पर पड़ता था!
 

चंदूभाई बताते हैं, ”तीन बार सप्लायर बदलने के बाद मैंने सोचा कि क्यों न हम खुद ही आलू वेफ़र्स बनाएं?“
 

1982 तक, पूरा परिवार राजकोट आ गया था और रामजीभाई ने बड़े बरामदे वाला एक बड़ा घर ख़रीद लिया था.
 

परिवार ने शुरुआत में कैंटीन के लिए ‘मसाला’ सैंडविच बनाना शुरू किया: ये सैंडविच सभी को पसंद आए और हिट रहे.
 

लेकिन सैंडविच को ज़्यादा देर नहीं रखा जा सकता था और वह जल्द ख़राब हो जाता था. इसलिए चंदूभाई को वेफ़र्स की बिक्री में भविष्य नज़र आया क्योंकि इसे कहीं और कभी भी ले जाया जा सकता था.

दस हज़ार रुपए के निवेश से चंदूभाई ने बरामदे को ऊपर से ढंका और वहां वेफ़र्स के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया.
 

यह सब कुछ कैंटीन का काम ख़त्म होने के बाद होता था.
 

आलू को छीलने और उसे काटने वाली मशीनों के दाम ज़्यादा होने के कारण उन्होंने 5,000 रुपए में खुद ही एक ऐसी ही मशीन बनवाई.
 

लेकिन जिस व्यक्ति को वेफ़र्स फ्राई करने के काम पर रखा गया था, वह कई बार काम पर नहीं आता था.
 

चंदूभाई कहते हैं, ”पूरी रात मैं ही वेफ़र्स फ्राई करता था. शुरुआत में ढेर सारे वेफ़र्स बर्बाद हो जाते थे, लेकिन मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी. उस समय तक परिवार में मेरे अलावा किसी को भी वेफ़र्स फ्राई करना नहीं आता था.“
 

धीरे-धीरे चंदूभाई के पास तीन कैंटीन कॉन्ट्रैक्ट हो गए: दो ऐस्ट्रॉन सिनेमा में और एक कोटेचा गर्ल्स हाई स्कूल में.
 

जल्द ही वे 20-30 दुकानों को भी वेफ़र्स सप्लाई करने लगे.
 

1984 में उन्होंने वेफ़र्स को ‘बालाजी’ ब्रांड के नाम से बेचने का फ़ैसला किया, लेकिन उनकी परेशानियां अभी ख़त्म नहीं हुई थीं.
 

वे याद करते हैं, ”जब मैं दुकानदारों से पैसे इकट्ठा करने जाता था तो कई दुकानदार मुझे आधे खाए पैकेट यह कहकर लौटा देते थे कि वेफ़र्स पुराने हैं. वो मुझे फ़टे नोट देते थे या फिर झूठ बोलते थे कि उन्होंने पैसे चुका दिए हैं.“

बालाजी के वाड स्थित 50 एकड़ में फैले पूरी तरह ऑटोमैटिक प्लांट में 2,000 पेड़-पौधे हैं.

लेकिन चंदूभाई निराश नहीं हुए.
 

उन्होंने बिना रुके काम जारी रखा. उन्हें उम्मीद थी कि एक दिन वक्त बदलेगा. उन्होंने कभी भी गुणवत्ता से समझौता नहीं किया.
 

अपनी कुछ जमा-पूंजी और 50 लाख के बैंक कर्ज़ के साथ 1989 में उन्होंने राजकोट के अजी जीआईडीसी इलाक़े में एक फ़ैक्ट्री की शुरुआत की.
उस वक्त वह गुजरात की सबसे बड़ी आलू वेफ़र फ़ैक्ट्री थी.

 

लेकिन नई मशीन लगाना बुरा अचंभा साबित हुआ- उसने ने कभी काम ही नहीं किया.
 

वो बताते हैं, ”कंपनी इंजीनियर आते थे और हर बार 50,000 रुपए के होटल या दूसरे बिल थमाकर चले जाते थे.“
 

आख़िरकार उन्होंने खुद ही मशीनों के बारे में पढ़ाई की और उसकी मरम्मत करना शुरू कर दिया.
 

वो कहते हैं, ”इस घटना ने हमें इंजीनियर बना दिया. हर झटके ने मुझे अधिक मज़बूत बनाया और बुनियादी सबक सिखाए.“
 

बढ़ोतरी के बारे में वो कहते हैं, ”दस साल के हमारी शुरुआत संघर्ष के दौरान हमारी मासिक कमाई 20,000 से 30,000 रुपए होती थी.“
 

1992 में बालाजी वेफ़र्स प्राइवेट लिमिटेड के गठन के साथ धीरे-धीरे बिज़नेस में तेज़ी आई.
 

कंपनी में तीन निदेशक  थे - भीखूभाई, चंदूभाई और कानुभाई.

बालाजी के कुल कर्मचारियों में क़रीब 50 फीसदी महिलाएं हैं.

उन्होंने अंकल चिप्स, सिंबा और बिनीज़ को ज़बर्दस्त चुनौती दी. उनका ध्यान चिप्स की गुणवत्ता, उसके वितरण, दाम और सर्विस पर होता था.


चंदूभाई बताते हैं, ”पेप्सिको जैसी बड़ी कंपनियों के बाज़ार में होने के बावजूद हमने अच्छा कारोबार किया. इसका कारण यह था कि बालाजी भारतीय कंपनी है और हमने वितरकों, सप्लायर्स, डीलर्स तथा उपभोक्ताओं के साथ मज़बूत संबंध बनाए. ये संबंध इतने गहरे थे कि वो हमसे सीधे बात कर सकते थे. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ऐसा नहीं होता.“


उनका मानना है कि कारोबार में भरोसा बनाना, गुणवत्ता, अच्छी सर्विस और पैसे का सदुपयोग या वैल्यू फ़ॉर मनी महत्वपूर्ण हैं.
 

वो कहते हैं, ”हम अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए नौकरी देने की होड़ में नहीं हैं. हमारे लोग अच्छी सर्विस देते हैं और बाक़ी काम अपने आप हो जाता है.”
 

आज भारत में कंपनी के चार प्लांट हैं जिनकी कुल क्षमता 6.5 लाख किलो आलू और 10 लाख किलो नमकीन प्रतिदिन है.
 

आलू वेफ़र्स के अलावा बालाजी 30 तरह के नमकीन स्नैक्स भी बनाता है.

चंदूभाई का अपने ब्रांड में असीम भरोसा है. उन्होंने अपनी कंपनी में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हिस्सेदारी बेचने से इंकार कर दिया है.

2008 में शुरू हुए कंपनी के तीसरे प्लांट की प्रति घंटा क्षमता 9,000 किलो आलू थी. जब यह प्लांट शुरू हुआ, तब यह क्षमता एशिया में सबसे ज़्यादा थी.
 

2016 में इंदौर में शुरू किए गए हाईटेक और पूरी तरह ऑटोमैटिक प्लांट का लक्ष्य था भारत के विभिन्न इलाक़ों में नए बाज़ार पैदा करना.

कंपनी का लक्ष्य है - ‘उपभोक्ता राजा है.’ कंपनी का दावा है कि गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और गोवा के 60 प्रतिशत बाज़ार और मध्यप्रदेश के 15 प्रतिशत बाज़ार पर उसका कब्ज़ा है.

कंपनी में 5,000 लोग काम करते हैं जिनमें 2,500 महिलाएं हैं कंपनी के उत्पाद छह मुख्य डिस्ट्रिब्यूटर और 700 डीलरों की मदद से आठ लाख से ज़्यादा दुकानदारों के पास पहुंचते हैं.


उपभोक्ता से लेकर दुकानदार तक सभी चंदूभाई के लिए ”बालाजी परिवार“ का हिस्सा हैं.
 

अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ता यूरोमॉनीटर के एक अध्ययन में पाया गया कि 2013 और 2015 के बीच जहां ‘लेज़’ का हिस्सा 51.1 से घटकर 49.5 प्रतिशत तक पहुंच गया, स्थानीय कंपनियों जैसे बालाजी वेफ़र्स की भारतीय बाज़ार में भागीदारी लगातार बढ़ रही है.
 

एक अनुमान के मुताबिक भारतीय वेफ़र्स का बाज़ार 7,000 से 10,000 करोड़ तक का है.
 

आश्चर्य की बात नहीं कि कई बड़े बिज़नेस स्कूल और कंपनियां चंदूभाई को आमंत्रित करते हैं कि वो अपनी सफ़लता की कहानी उनके साथ बांटें.
वो कहते हैं, ”मैं लोगों से कहता हूं कि मैं उनके सामने सिर्फ़ अच्छी चीज़ों के बारे में बोलने नहीं आया हूं, बल्कि सच्चाई बताने आया हूं कि जिस राह पर मैं चला, वो बेहद मुश्किल थी, लेकिन नामुमकिन नहीं. आज लोग आम खाना चाहते हैं लेकिन उन्होंने बोए टमाटर हैं. एक-एक पायदान सीढ़ी चढ़ने के बजाय वो तेज़ी से कूदना चाहते हैं. इसलिए वो ऐसी व्यूहरचना इस्तेमाल करते हैं, जिसकी कोई जड़ नहीं होती.“

चंदूभाई और उनके भाइयों के बच्चे कारोबार से जुड़ चुके हैं. इससे कंपनी की ताकत बढ़ी है.

 

परिवार की अगली पीढ़ी ने कमान संभाल ली है. उनमें शामिल हैं भीखूभाई के बेटे केयूर जिन्होंने आर ऐंड डी यानी शोध और विकास की ज़िम्मेदारी संभाल ली है.
 

भीखूभाई के दूसरे बेटे मिहिर कंपनी की मार्केटिंग देखते हैं.
 

चंदूभाई के बेटे प्रणय ने विकास, लोगों से संपर्क और निर्माण की ज़िम्मेदारी संभाली है. चंदूभाई की बेटी किंजल की शादी हो चुकी है.
 

कानुभाई का बेटा पढ़ रहा है और उड़ान भरने के इंतज़ार में है.
 

वर्तमान में कंपनी हर साल 20-25 प्रतिशत की रफ़्तार से बढ़ रही है.
 

चंदूभाई के मुताबिक, कई कंपनियों, जिनमें बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी शामिल हैं, ने बालाजी में हिस्सेदारी ख़रीदने के लिए उनसे संपर्क किया है.
 

”इनमें अमेरिकी कंपनियां पेप्सिको और जनरल मिल्स शामिल हैं. इसके अलावा भारत की क़रीब 50 कंपनियों ने भी हिस्सेदारी के लिए संपर्क किया है. लेकिन मैं यहां अपनी कंपनी चलाने के लिए बैठा हूँ न कि इसे बेचने के लिए. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच जीवित रहना आसान नहीं. मैंने एक पेड़ लगाया है और मैं इसे कभी नहीं काटूंगा, इसलिए इसकी जड़ें मज़बूत हैं.“

 


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • Designer Neelam Mohan story

    डिज़ाइन की महारथी

    21 साल की उम्र में नीलम मोहन की शादी हुई, लेकिन डिज़ाइन में महारत और आत्मविश्वास ने उनके लिए सफ़लता के दरवाज़े खोल दिए. वो आगे बढ़ती गईं और आज 130 करोड़ रुपए टर्नओवर वाली उनकी कंपनी में 3,000 लोग काम करते हैं. नई दिल्ली से नीलम मोहन की सफ़लता की कहानी सोफ़िया दानिश खान से.
  • Royal brother's story

    परेशानी से निकला बिजनेस आइडिया

    बेंगलुरु से पुड्‌डुचेरी घूमने गए दो कॉलेज दोस्तों को जब बाइक किराए पर मिलने में परेशानी हुई तो उन्हें इस काम में कारोबारी अवसर दिखा. लौटकर रॉयल ब्रदर्स बाइक रेंटल सर्विस लॉन्च की. शुरुआत में उन्हें लोन और लाइसेंस के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा, लेकिन मेहनत रंग लाई. अब तीन दोस्तों के इस स्टार्ट-अप का सालाना टर्नओवर 7.5 करोड़ रुपए है. रेंटल सर्विस 6 राज्यों के 25 शहरों में उपलब्ध है. बता रहे हैं गुरविंदर सिंह
  • Malika sadaani story

    कॉस्मेटिक प्रॉडक्ट्स की मलिका

    विदेश में रहकर आई मलिका को भारत में अच्छी गुणवत्ता के बेबी केयर प्रॉडक्ट और अन्य कॉस्मेटिक्स नहीं मिले तो उन्हें ये सामान विदेश से मंगवाने पड़े. इस बीच उन्हें आइडिया आया कि क्यों न देश में ही टॉक्सिन फ्री प्रॉडक्ट बनाए जाएं. महज 15 लाख रुपए से उन्होंने अपना स्टार्टअप शुरू किया और देखते ही देखते वे मिसाल बन गईं. अब तक उनकी कंपनी को दो बार बड़ा निवेश मिल चुका है. कंपनी का टर्नओवर 4 साल में ही 100 करोड़ रुपए काे छूने के लिए तैयार है. बता रही हैं सोफिया दानिश खान.
  • Vikram Mehta's story

    दूसरों के सपने सच करने का जुनून

    मुंबई के विक्रम मेहता ने कॉलेज के दिनों में दोस्तों की खातिर अपना वजन घटाया. पढ़ाई पूरी कर इवेंट आयोजित करने लगे. अनुभव बढ़ा तो पहले पार्टनरशिप में इवेंट कंपनी खोली. फिर खुद के बलबूते इवेंट कराने लगे. दूसरों के सपने सच करने के महारथी विक्रम अब तक दुनिया के कई देशों और देश के कई शहरों में डेस्टिनेशन वेडिंग करवा चुके हैं. कंपनी का सालाना रेवेन्यू 2 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है.
  • From Rs 16,000 investment he built Rs 18 crore turnover company

    प्रेरणादायी उद्ममी

    सुमन हलदर का एक ही सपना था ख़ुद की कंपनी शुरू करना. मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म होने के बावजूद उन्होंने अच्छी पढ़ाई की और शुरुआती दिनों में नौकरी करने के बाद ख़ुद की कंपनी शुरू की. आज बेंगलुरु के साथ ही कोलकाता, रूस में उनकी कंपनी के ऑफिस हैं और जल्द ही अमेरिका, यूरोप में भी वो कंपनी की ब्रांच खोलने की योजना बना रहे हैं.