Milky Mist

Friday, 19 April 2024

अनुभव न होने के कारण कई कंपनियों ने ठुकराया अब हैं 3600 करोड़ की कंपनी के मालिक

19-Apr-2024 By पीसी विनोज कुमार
मुंबई

Posted 22 Jan 2018

अरोकियास्वामी वेलुमणि की उम्र 57 साल है और वो 3,600 करोड़ रुपए की कंपनी थायरोकेयर टेक्नोलॉजीस लिमिटेड के प्रमुख हैं.
स्वतंत्र विचारों वाले वेलुमणि अपना बिज़नेस चलाने के लिए स्थापित तरीक़ों या पारंपरिक ज्ञान का सहारा नहीं लेते. 
उदाहरण के तौर पर, जहां नौकरी देते वक्त लगभग सभी लोग अनुभव को तरजीह देते हैं, वहीं वेलुमणि सिर्फ़ नए लोगों को कंपनी में जगह देते हैं. यही उनकी कंपनी का दस्तूर है.

थायरोकेयर टेक्नोलॉजीस लिमिटेड के प्रमुख अरोकियास्वामी वेलुमणि तमिलनाडु के कोयंबटूर के पास एक गांव के रहने वाले हैं. (सभी फ़ोटो: एचके राजाशेकर)

नवी मुंबई में छह माले के अपने कॉर्पोरेट दफ़्तर की पांचवीं मंजिल पर स्थित अपने बड़े से केबिन में बैठे वेलुमणि बताते हैं, “मेरी कंपनी में क़रीब एक हज़ार कर्मचारी हैं. क़रीब-क़रीब सभी की यह पहली नौकरी है. सिर्फ़ दो प्रतिशत कर्मचारियों के पास यहां से पहले काम करने का थोड़ा अनुभव था.”
कंपनी में कर्मचारियों की औसत आयु 25 साल है और सालाना औसत वेतन 2.70 लाख रुपए है.
साल 2015-16 में कंपनी 235 करोड़ रुपए का टर्नओवर हासिल कर चुकी है.
अप्रैल में जब थायरोकेयर का आईपीओ 73 गुना ओवरसब्सक्राइब हुआ तो भारतीय बाज़ारों में हड़कंप मच गया था.
देशभर में थायरोकेयर के 1,200 फ्रैंचाइज़ सेंटर हैं, जहां सीधे मरीज़ों और नज़दीकी अस्पतालों से ख़ून व सीरम के सैंपल इकट्ठा किए जाते हैं. फिर हवाईजहाज़ से टेस्ट के लिए मुंबई स्थित पूरी तरह ऑटोमेटेड लैब लाया जाता है. 
वेलुमणि बताते हैं, “थायरॉयड टेस्टिंग बाज़ार में हमारी 10 प्रतिशत हिस्सेदारी है.”
अपने परिवार में वेलुमणि पहले उद्यमी हैं. तमिलनाडु में कोयंबटूर के पास एक गांव में बेहद अभावों में वो पले-बढ़े. जब वो छोटे थे तो स्कूल के बाद और छुट्टियों में परिवार की मदद के लिए खेत में काम करते थे.
उनके माता-पिता किसान थे, लेकिन उनके पास अपनी ज़मीन नहीं थी. इसलिए वो पट्टे पर दी गई ज़मीन पर खेती करते थे, लेकिन आमदनी इतनी कम थी कि चार बच्चों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करना भी मुश्किल होता था.
बच्चों में वेलुमणि सबसे बड़े थे. उनके दो छोटे भाई और एक बहन हैं.
गुज़रे दिनों की तुलना आज से करते हुए वो कहते हैं, “उन दिनों मेरे पास ढेर सारा समय था, लेकिन पैसा नहीं था. आज मेरे पास पैसा है लेकिन समय नहीं है.”
वेलुमणि दार्शनिक अंदाज़ में कहते हैं, “उन दिनों मुझे बहुत भूख लगती थी, लेकिन खाने को नहीं था. आज मेरे पास बहुत सारा खाना है, लेकिन भूख नहीं है.”
वेलुमणि स्थायी रूप से आशावादी हैं और वो हमेशा गिलास को आधा भरा हुआ देखना पसंद करते हैं. ग़रीबी में गुज़रे बचपन के बावजूद उन्होंने कभी भी उम्मीद का साथ नहीं छोड़ा.

नवी मुंबई स्थित अपने कॉर्पोरेट ऑफ़िस में डॉ. वेलुमणि.

वेलुमणि कहते हैं, “मैं कक्षा पांच तक पंचायत यूनियन स्कूल जाता था. मेरे एक हाथ में स्लेट होती थी और दूसरे हाथ में प्लेट क्योंकि स्कूल में मिडे-डे मील मिलता था.”
“मुझे वो दिन भी याद हैं जब मैं सिर्फ़ शॉर्ट्स पहन कर स्कूल गया क्योंकि दो-तीन दिन पहनने के बाद मैंने शर्ट धुलने के लिए दे दी थी.”
वेलुमणि साफ़गोई से कहते हैं, “मैं स्कूल में एकमात्र छात्र था, जो ग्यारहवीं कक्षा में खींची हुई तस्वीर में नहीं है क्योंकि मेरे पास तस्वीर के लिए दो रुपए नहीं थे.”
लेकिन वेलुमणि हमेशा जीवन का दूसरा पहलू भी देखते हैं.
वो कहते हैं, “मैं महीने में 60 बार भोजन करता था, लेकिन ऐसे भी बच्चे थे जिन्हें उसका आधा भी नसीब नहीं होता था. वो मुझसे भी ग़रीब थे. मैं ज़िंदगी को ऐसे ही देखता हूं.”
हमारी बातचीत में उन्होंने कई बार ‘ग़रीबी के आनंद’ का ज़िक्र किया. बचपन के तजुर्बों को वो इसी तरह देखते हैं.
उनके जीवन में आगे बढ़ने की कहानी 1978 में शुरू हुई, जब उन्हें जेमिनी कैप्सूल्स में केमिस्ट के तौर पर 150 रुपए मासिक तनख़्वाह पर पहली नौकरी मिली.
यह कंपनी कोयंबटूर में टैबलेट बनाती थी. वेलुमणि कोयंबटूर के रामकृष्ण मिशन विद्यालय से केमिस्ट्री से ग्रैजुएट थे. उन्होंने केमिस्ट्री इसलिए पढ़ी ताकि उन्हें साउथ इंडिया विस्कोस कंपनी में नौकरी मिल पाए.
साउथ इंडिया विस्कोस रेयॉन बनाती थी और उस वक्त वह कोयंबटूर क्षेत्र की सबसे बड़ी फ़ैक्ट्रियों में से थी. अब यह फ़ैक्ट्री बंद हो चुकी है.
वेलुमणि याद करते हैं, “विस्कोस में काम करने वाले कर्मचारियों को हर साल वेतन का 40 प्रतिशत सालाना बोनस मिलता था. यह मेरे लिए बहुत बड़ा आकर्षण था. लेकिन मुझे वहां नौकरी नहीं मिल पाई क्योंकि मुझे काम करने का कोई अनुभव नहीं था. अनुभव नहीं होने के कारण कई दूसरी कंपनियों ने भी मुझे नौकरी नहीं दी.”
वेलुमणि आज मुड़कर देखते हैं तो उन्हें लगता है जो हुआ अच्छे के लिए हुआ.
वो कहते हैं, “किसी ने मुझे क्लर्क की नौकरी भी नहीं दी. क़िस्मत से जिस कैप्सूल कंपनी में मैं काम कर रहा था, वो भी चार साल बाद बंद हो गई, नहीं तो क्या पता मैं वहीं फंसा रहता.”

मुंबई में पूरी तरह ऑटोमैटिक लैब में राज 50 हज़ार सैंपल टेस्टिंग के लिए पहुंचते हैं.

तेईस साल की उम्र में उन्हें फिर नौकरी ढूंढने का अवसर मिला. इस बार उन्होंने मुंबई के भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (बार्क) में साइंटिफ़िक असिस्टेंट की नौकरी के लिए अर्ज़ी दी.
वो दो बार मुंबई गए. एक बार इंटरव्यू देने और फिर मेडिकल इग्ज़ामिनेशन के लिए. इसके बाद साल 1982 में उन्हें नौकरी मिल गई.
वो कहते हैं, “ग़रीबी में रह चुके व्यक्ति के लिए मासिक 880 रुपए की सरकारी नौकरी एक तरह की लग्ज़री थी. मैं इस पैसे से अपने परिवार का ध्यान रख सकता था.”
चार साल बाद उनकी सुमति से शादी हुई. सुमति स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में काम करती थीं.
बार्क में काम करने के दौरान उन्होंने पोस्ट-ग्रैजुएशन के साथ-साथ मुंबई यूनिवर्सिटी से बार्क के सहयोगपूर्ण कार्यक्रम के तहत थायरॉयड बायोकेमिस्ट्री में डॉक्टरेट पूरा किया. 
बार्क में क़रीब 15 साल काम करने के बाद, यानी 1995 में वेलुमणि को लगा कि उनकी ज़िंदगी बेहद आरामदायक हो गई है और उन्हें जीवन में कुछ चुनौतीपूर्ण करना चाहिए.

डॉ. वेलुमणि ने 1995 में दक्षिण मुंबई के भायकला में 200 वर्ग फ़ीट के किराए के एक गैराज से थायरोकेयर की शुरुआत की.

वेलुमणि कहते हैं “जब मैंने नौकरी छोड़ी तो मेरे परिवार में सभी लोग रोने लगे. सिर्फ़ मेरी पत्नी ने मेरे फ़ैसले का समर्थन किया. उन्होंने भी अपनी नौकरी छोड़ दी और मेरे बिज़नेस में मेरा साथ देने लगीं.”
“हम दोनों मिलकर महीने का 10 हज़ार रुपए कमाते थे. घर पर हम क़रीब 2 हज़ार रुपए ख़र्च करते थे और हर महीने 8 हज़ार रुपए बचाते थे. जब हमने नौकरी छोड़ी तब हमारे सेविंग अकाउंट में 2.90 लाख रुपए थे. मुझे पता था कि इस पैसे से मेरा परिवार 100 महीने घर चला सकता है.”
वेलुमणि कहते हैं, “हम बेहद मितव्ययी थे. कम पैसों पर गुज़र करने वाले कंजूस नहीं होते. वो सिर्फ़ अपने ऊपर पैसा ख़र्च करते हैं. बेवकूफ़ लोग पैसा उड़ाते हैं, क्योंकि उनके पड़ोसी उन्हें देख रहे होते हैं. अगर आप मितव्ययी हैं, तो आप राजा हैं. अगर नहीं तो आप ग़ुलाम हैं.”
साल 1995 में उन्होंने थायरोकेयर की शुरुआत की. इसके लिए उन्होंने अपने प्रॉविडेंट फंड से एक लाख रुपए निकाले, जिससे उन्होंने दक्षिणी मुंबई के भायकला में 200 वर्ग फ़ीट के एक गैराज को किराए पर लिया.
उनका बिज़नेस मॉडल बेहद आसान था, जिसे उन्होंने आने वाले सालों में आगे बढ़ाया.

डॉ. वेलुमणि के बेटे-बेटी आनंद और अमृता कंपनी में डायरेक्टर हैं.

वेलुमणि कहते हैं, “कम ऑर्डर होने के कारण थायरॉयड टेस्ट करने वाली लैबोरेट्रीज़ का हाल बुरा था. मैंने एक लैब से एक मशीन ली. उस मशीन का इस्तेमाल मात्र एक घंटे होता था और बाकी समय वो खाली रहती थी.”
“मैंने उस व्यक्ति से कहा कि मैं पांच साल तक उसके टेस्ट मुफ़्त में करूंगा. वो मशीन एक दिन में 300 सैंपल टेस्ट कर सकती थी.”
“मैंने उसके लिए 50 सैंपल फ्री में टेस्ट किए और लोगों से 250 ऑर्डर लिए. धीरे-धीरे मैंने और मशीनें ख़रीदीं. वक्त बीता और हमारे पास 10 मशीनें हो गईं और हम हर दिन 3,000 सैंपल टेस्ट करने लगे.”
वेलुमणि खुद लैब व अस्पताल जाते और ऑर्डर मांगते. जब सैंपल कलेक्शन के लिए तैयार हो जाते तो लैब उनसे दफ़्तर के लैंडलाइन पर फ़ोन करके संपर्क करते. उनकी पत्नी यह कॉल सुनती और जब वेलुमणि पीसीओ से कॉल करते तो उन्हें सैंपल कलेक्शन के बारे में बतातीं.
वेलुमणि कहते हैं, “मैं सैंपल इकट्ठा करने के लिए शहर के एक कोने से दूसरे कोने जाता था. मैं लंबी दूरी के लिए हमेशा उपनगरीय ट्रेन पकड़ता और स्टेशन से लैब तक पैदल जाता था, चाहे दूरी कितनी भी हो.”

डॉ. वेलुमणि के भाई ए सुंदरराजू थायरोकेयर में चीफ़ फ़ाइनेंशियल ऑफ़िसर हैं.

वो कहते हैं, “ग़रीबी का यही आनंद है. मैं अपने गांव में लंबा सफ़र पैदल पूरा करता था, इसलिए मेरे लिए यह नया नहीं था.”
जैसे-जैसे सैंपल की संख्या बढ़ी, बिज़नेस भी बढ़ा और देश के अलग-अलग हिस्सों में फ्रैंचाइज़ी दिखने लगे. 
साल 1998 तक उनके साथ 15 कर्मचारी काम करने लगे और कंपनी का टर्नओवर एक करोड़ रुपए तक पहुंच गया.
वो कहते हैं, “हम बेहद कम मुनाफ़े पर काम करते हैं. हम थायरॉयड टेस्ट के लिए मात्र 250 रुपए लेते हैं. मैं 100 रुपए रखता हूं और फ्रैंचाइज़ के पास 150 रुपए जाते हैं. बाज़ार में इसी टेस्ट का रेट 500 रुपए है. बड़े अस्पताल तो 1,500 रुपए और कभी-कभी उससे भी ज़्यादा चार्ज करते हैं.” 
थायरॉयड टेस्टिंग के अलावा थायरोकेयर का विस्तार हेल्थ डायग्नोस्टिक्स से जुड़े दूसरे क्षेत्रों में भी हो गया है. थायरोकेयर अब डायबिटीज़, आर्थराइटिस समेत अन्य टेस्ट भी करता है.
हर दिन थायरोकेयर के पास क़रीब 50 हज़ार सैंपल पहुंचते हैं, जिनमें से 80 प्रतिशत थायरॉयड टेस्टिंग के लिए होते हैं.
कुछ महीने पहले वेलुमणि को जीवन में सबसे बड़ा झटका उस वक्त लगा, जब उनकी पत्नी की पैनक्रियाटिक कैंसर से मौत हो गई.

अपने कॉर्पोरेट ऑफ़िस की ही एक मंजिल पर स्थित घर पर अपने परिवार के साथ लंच करते डॉ. वेलुमणि.

कंपनी की मासिक मैगज़ीन ‘हेल्थ स्क्रीन’ के संपादकीय में वेलुमणि ने अपनी पत्नी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा, “तुम कभी न ख़त्म होने वाली ताकत का पुलिंदा थीं, जो मधुमक्खी की तरह एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल, एक इमारत से दूसरी इमारत तक उड़ती रहती थीं. तुमने थायरोकेयर में काम करने वाले हज़ारों लोगों के जीवन को अपनी मुस्कुराहट, फ़ाइलों और चिट्ठियों के माध्यम से छुआ है.”
कंपनी के 65 प्रतिशत शेयर वेलुमणि के पास हैं जबकि 20 प्रतिशत आम लोगों के पास और 15 प्रतिशत प्राइवेट इक्विटी के पास.
उनके भाई ए सुंदरराजू और दो बच्चे 27 वर्षीय आनंद व 25 वर्षीय अमृता कंपनी में डायरेक्टर के तौर पर सक्रिय रूप से जुड़े हैं.


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • Senthilvela story

    देसी नस्ल सहेजने के महारथी

    चेन्नई के चेंगलपेट के रहने वाले सेंथिलवेला ने देश-विदेश में सिटीबैंक और आईबीएम जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों की 1 करोड़ रुपए सालाना की नौकरी की, लेकिन संतुष्ट नहीं हुए. आखिर उन्होंने पोल्ट्री फार्मिंग का रास्ता चुना और मुर्गियों की देसी नस्लें सहेजने लगे. उनका पांच लाख रुपए का शुरुआती निवेश अब 1.2 करोड़ रुपए सालाना के टर्नओवर में तब्दील हो चुका है. बता रही हैं उषा प्रसाद
  • Success story of Falcon group founder Tara Ranjan Patnaik in Hindi

    ऊंची उड़ान

    तारा रंजन पटनायक ने कारोबार की दुनिया में क़दम रखते हुए कभी नहीं सोचा था कि उनका कारोबार इतनी ऊंचाइयां छुएगा. भुबनेश्वर से जी सिंह बता रहे हैं कि समुद्री उत्पादों, स्टील व रियल एस्टेट के क्षेत्र में 1500 करोड़ का सालाना कारोबार कर रहे फ़ाल्कन समूह की सफलता की कहानी.
  • Crafting Success

    अमूल्य निधि

    इंदौर की बेटी निधि यादव ने कंप्यूटर साइंस में बीटेक किया, लेकिन उनकी दिलचस्पी कपड़े बनाने में थी. पढ़ाई पूरी कर उन्होंने डेलॉयट कंपनी में भी काम किया, लेकिन जैसे वे फैशन इंडस्ट्री के लिए बनी थीं. आखिर नौकरी छोड़कर इटली में फैशन इंडस्ट्री का कोर्स किया और भारत लौटकर गुरुग्राम में केएस क्लोदिंग नाम से वुमन वियर ब्रांड शुरू किया. महज 3.50 लाख से शुरू हुआ बिजनेस अब 137 करोड़ रुपए टर्नओवर वाला ब्रांड है. सोफिया दानिश खान बता रही हैं निधि की अमूल्यता.
  • Chandubhai Virani, who started making potato wafers and bacome a 1800 crore group

    विनम्र अरबपति

    चंदूभाई वीरानी ने सिनेमा हॉल के कैंटीन से अपने करियर की शुरुआत की. उस कैंटीन से लेकर करोड़ों की आलू वेफ़र्स कंपनी ‘बालाजी’ की शुरुआत करना और फिर उसे बुलंदियों तक पहुंचाने का सफ़र किसी फ़िल्मी कहानी जैसा है. मासूमा भरमाल ज़रीवाला आपको मिलवा रही हैं एक ऐसे इंसान से जिसने तमाम परेशानियों के सामने कभी हार नहीं मानी.
  • Vada story mumbai

    'भाई का वड़ा सबसे बड़ा'

    मुंबई के युवा अक्षय राणे और धनश्री घरत ने 2016 में छोटी सी दुकान से वड़ा पाव और पाव भाजी की दुकान शुरू की. जल्द ही उनके चटकारेदार स्वाद वाले फ्यूजन वड़ा पाव इतने मशहूर हुए कि देशभर में 34 आउटलेट्स खुल गए. अब वे 16 फ्लेवर वाले वड़ा पाव बनाते हैं. मध्यम वर्गीय परिवार से नाता रखने वाले दोनों युवा अब मर्सिडीज सी 200 कार में घूमते हैं. अक्षय और धनश्री की सफलता का राज बता रहे हैं बिलाल खान