Milky Mist

Tuesday, 14 October 2025

इस शख्स ने नौनिहालों के जीवन में शिक्षा का उजियारा फैलाने की ठानी, किया करोड़ों का निवेश

14-Oct-2025 By गुरविंदर सिंह
भुबनेश्वर

Posted 09 Feb 2018

नेल्सन मंडेला का एक मशहूर कथन है, “शिक्षा सबसे सशक्त हथियार है जिसका इस्तेमाल कर आप दुनिया बदल सकते हैं.”

दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति के ख़िलाफ़ लड़ने वाले नेल्सन मंडेला के इन सुनहरे शब्दों से भुबनेश्वर के एक व्यक्ति ने प्रेरणा ली.

ग़रीबी की मार झेलने वाले बिजय कुमार साहू ने न सिर्फ़ खुद पढ़ाई की बल्कि सैकड़ों बच्चों की ज़िंदगी में शिक्षा की रोशनी भर दी.

बिजय कुमार साहू 1997 से 2006 के बीच दुनियाभर के 250 स्कूलों में गए. इसके बाद वर्ष 2008 में भुबनेश्वर में साई इंटरनेशनल स्कूल की शुरुआत की. (सभी फ़ोटो: टिकन मिश्रा)

बिजय कुमार साहू ओडिशा में चार्टर्ड एकाउंटेंट थे, और अब उद्यमी हैं. उन्होंने बच्चों के संपूर्ण विकास के लिए शिक्षा को खेल से जोड़ा.

साल 2008 में उन्होंने साई इंटरनेशनल स्कूल की शुरुआत की. साल 2017 की एजुकेशन वर्ल्ड की टॉप स्कूल रैंकिंग में इसे देश का चौथा और ओडिशा का सर्वश्रेष्ठ स्कूल का दर्जा मिला. 

स्कूल में अभी 4,300 बच्चे पढ़ते हैं. यहां 600 टीचिंग और क़रीब 1,000 नॉन टीचिंग स्टाफ़ है. बारहवीं कक्षा तक के इस स्कूल में हर बच्चे से 8,000 रुपए फ़ीस ली जाती है.

एक जून, 1963 भुबनेश्वर में जन्मे बिजय दो बच्चों में दूसरे थे. उनकी एक बड़ी बहन थी. उनके पिता का छोटा व्यापार था, जिससे बमुश्किल घर ख़र्च चल पाता था.

उन्होंने डीएम स्कूल से पढ़ाई शुरू की और 1980 में कक्षा 12 पास कर ली. स्कूल की फ़ीस मामूली थी क्योंकि उसे केंद्र सरकार चलाती थी. फिर उन्होंने कटक के रावेनशॉ स्कूल से 1982 में ग्रैजुएशन पूरा किया.

साई इंटरनेशनल स्कूल में 4,300 बच्चे पढ़ते हैं. यहां 600 टीचिंग और 1,000 नॉन टीचिंग स्टाफ़ है.

साई इंटरनेशनल स्कूल के अपने दफ़्तर में बैठे बिजय बताते हैं, “पढ़ाई में अच्छा होने के कारण मुझे 600 रुपए सालाना स्कॉलरशिप मिलती थी, जिससे पढ़ाई और दूसरा ख़र्च निकल जाता था. इसके अलावा कॉलेज के दिनों में ख़र्च निकालने के लिए मैंने बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाई.”

साल 1982 में उन्होंने चार्टर्ड अकाउंटेंसी की पढ़ाई शुरू की और बाद में कोलकाता एक निजी कंपनी में आर्टिकलशिप करने गए, जहां उन्हें 600 रुपए महीना स्टाइपेंड मिलता था.

बिजय याद करते हैं, “मेरे कंधों पर परिवार की ज़िम्मेदारी थी, क्योंकि मेरे पिता की कमाई पर्याप्त नहीं थी.”

“मैं अपने स्टाइपेंड का हर पैसा बचाना चाहता था, इसलिए कोलकाता के प्रिंसेप घाट स्ट्रीट में एक पोस्ट ऑफ़िस के वॉचमैन के साथ एक ही कमरे में रहता था.”

“मैं उस कमरे के लिए हर महीने 100 रुपए किराया देता था. वो 80 वर्ग फ़ीट का छोटा सा कमरा था, जिसमें एक ही टॉयलेट था. उन दिनों सुबह-शाम का भोजन जुटाना भी मुश्किल था...”

साल 1985 में सीए पूरा करने के बाद वो भुबनेश्वर वापस आ गए. यहां उन्होंने पार्टनरशिप में एके साबत ऐंड कंपनी नाम से फ़र्म शुरू की. यह कंपनी उन्होंने 1992 तक चलाई.

जल्द ही यह अग्रणी फ़र्म बन गई और इसके क्लाइंट बढ़ने लगे.

शुरुआत में इसका 1,000 वर्ग फ़ीट का दफ़्तर था, जिसमें चार कर्मचारी काम करते थे. लेकिन धीरे-धीरे कमाई बढ़ने लगी. साल 1992 आते-आते फ़र्म की कमाई 10,000 रुपए महीना तक पहुंच गई.

इस बीच साल 1987 में भुबनेश्वर से ही ताल्लुक रखने वाली शिल्पी से उनकी शादी हो गई. वो दो बेटों और एक बेटी के माता-पिता हैं. उनकी बेटी अर्न्स्ट ऐंड यंग में सीनियर कंसल्टेंट के तौर पर काम कर रही है, जबकि उनके जुड़वां बेटों में से एक दिल्ली में बेन ऐंड कंपनी में काम करता है और दूसरा मुंबई की पार्थेनॉन ईवाई में.

बिजय कुमार महसूस करते थे कि शिक्षा की बदौलत ही उनके जीवन में समृद्धि आई है. इसीलिए वो भावी पीढ़ी को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देना चाहते थे. इसी सोच के बाद उन्होंने सीए का पेशा छोड़कर स्कूल शुरू करने का निर्णय लिया.

साल 1992 में उन्होंने पार्टनरशिप ख़त्म कर भुबनेश्वर में ख़ुद की सीए फ़र्म जेएसएस एसोसिएट्स की शुरुआत की. साल 2000 में इसे दो और फ़र्म के साथ मिलाकर एसआरबी एसोसिएट्स का गठन किया.

बिजय कुमार बताते हैं, “मैं क़रीब 15 साल इस पेशे में रहा. हमारी फ़र्म में 25 सीए काम करते थे और हर जगह हमारी साख थी. नाल्को, फ़ॉल्कंस जैसी कंपनियां हमारी क्लाइंट थीं. साल 2000 तक हम तीन लाख रुपए महीना कमा रहे थे.”

लेकिन उनका ध्यान राज्य में शिक्षा के स्तर पर था. वो इसमें सुधार के लिए कुछ करना चाहते थे.

“मुझे हमेशा लगता था कि शिक्षा बुनियादी आवश्यकता है, जिसकी मदद से देश का भविष्य और व्यक्ति का भविष्य बदला जा सकता है.”

“शिक्षा से मेरी ज़िंदगी में ख़ुशहाली आई थी. शिक्षा मेरा जुनून था और मैंने अपने पेशे को त्यागा और अपने जुनून का अनुसरण किया.”

बिजय कुमार ने 1997 से 2006 के बीच दुनियाभर के 250 स्कूलों का दौरा किया ताकि उनके शिक्षा के स्तर को समझा जा सके और ओडिशा में मौजूदा स्तर में सुधार के लिए क़दम उठाया जा सके.

साल 2007 में उनकी फ़र्म हर महीने चार से पांच लाख रुपए कमा रही थी, तब उन्होंने अवकाश लेकर एक विश्व स्तरीय स्कूल खोलने का फ़ैसला किया.

उन्होंने बैंक से 10 करोड़ रुपए लोन लेकर भुबनेश्वर में आठ एकड़ ज़मीन ख़रीदी. आगे जाकर उधार की यह रक़म अगले पांच साल में 60 करोड़ तक पहुंच गई. इस रक़म पर उन्हें 10 प्रतिशत सालाना ब्याज़ दर देना था.

14 फ़रवरी 2007 को स्कूल का काम शुरू हुआ और 4 अप्रैल 2008 को स्कूल के दरवाज़े लड़कों और लड़कियों के लिए खोल दिए गए.

स्कूल ने नर्सरी से कक्षा आठ तक के बच्चों को प्रवेश देना शुरू कर दिया. 

पहले साल स्कूल में 410 बच्चों का दाख़िला हुआ. उनके अलावा स्कूल में 50 टीचिंग और 100 नॉन टीचिंग स्टाफ़ था.

साई इंटरनेशनल स्कूल का सामने का नज़ारा.

साल 2009 में स्कूल को कक्षा 10 और 12 के लिए सीबीएसई की मान्यता मिल गई और साल 2011 में दोनों कक्षाओं का पहला बैच पास होकर निकला.

बिजय कुमार कहते हैं, “हम हर बच्चे के शैक्षिक विकास पर हर दिन छह घंटे और व्यक्तित्व विकास पर दो घंटे देते हैं. हम बच्चों के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करते हैं.”
 

साई इंटरनेशनल स्कूल का रिकॉर्ड प्रभावशाली है. यहां के बच्चे बोर्ड परीक्षाओं में औसतन 86 प्रतिशत नंबर लेकर आते हैं जबकि टॉपर्स 90 प्रतिशत नंबर लाते हैं.

साल 2014 में साई ग्रुप ने भुबनेश्वर में साई इंटरनेशनल कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स की शुरुआत की. दो एकड़ में फैले इस कॉलेज को खड़ा करने में आठ करोड़ रुपए निवेश किए गए. इसमें क़रीब 250 बच्चे पढ़ते हैं.

इस संस्था को कई अवार्ड जीते हैं. जैसे क्वालिटी काउंसिल ऑफ़ इंडिया की ओर से साल 2017 का डीएल क्वालिटी गोल्ड अवार्ड.

फ़ार्च्यून इंडिया ने ‘बेस्ट 50 स्कूल्स फ़ॉर शैपिंग सक्सेस’ की सूची में इसे शामिल किया है. इसे राज्य सरकार का ग्रीन स्कूल अवार्ड भी मिला है.

स्कूल के यूनेस्को, ब्रिटिश काउंसिल और कैंब्रिज जैसे विदेशी संस्थानों के साथ समझौते भी हैं.

बिजय कुमार के मुताबिक, “हमारे स्कूल में क़रीब 100 विदेशी बच्चे पढ़ते हैं. हम कक्षा 5 से 12 के बच्चों के रहने की सुविधा का इंतज़ाम भी कर रहे हैं.”

अपनी पत्नी शिल्पी के साथ बिजय कुमार.

इमारत का काम शुरू हो चुका है और यह भुबनेश्वर में 35 एकड़ में फैली होगी. इस पर क़रीब 60 करोड़ का निवेश होगा और अगले साल से बोर्डिंग सुविधा शुरू हो जाएगी.

उनकी पत्नी शिल्पी विमेंस स्टडीज़ में पीएचडी हैं और साई इंटरनेशनल समूह की वाइस प्रेसिडेंट हैं.

सफ़लता के लिए उनका मंत्र है- हर दिन नई चुनौती लेकर आता है. आप मेहनत कीजिए और चुनौती का सामना कीजिए. उत्कृष्टता के लिए कोशिश करें. सफ़लता आपके पीछे-पीछे चली आएगी.

यह एक ऐसे व्यक्ति का राज़ है जो दृढ़तापूर्वक मानते हैं कि शिक्षा ज़िंदगी की दिशा और क़िस्मत बदल देती है.


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • Success story of Sarat Kumar Sahoo

    जो तूफ़ानों से न डरे

    एक वक्त था जब सरत कुमार साहू अपने पिता के छोटे से भोजनालय में बर्तन धोते थे, लेकिन वो बचपन से बिज़नेस करना चाहते थे. तमाम बाधाओं के बावजूद आज वो 250 करोड़ टर्नओवर वाली कंपनियों के मालिक हैं. कटक से जी. सिंह मिलवा रहे हैं ऐसे इंसान से जो तूफ़ान की तबाही से भी नहीं घबराया.
  • IIM topper success story

    आईआईएम टॉपर बना किसानों का रखवाला

    पटना में जी सिंह मिला रहे हैं आईआईएम टॉपर कौशलेंद्र से, जिन्होंने किसानों के साथ काम किया और पांच करोड़ के सब्ज़ी के कारोबार में धाक जमाई.
  • UBM Namma Veetu Saapaadu hotel

    नॉनवेज भोजन को बनाया जायकेदार

    60 साल के करुनैवेल और उनकी 53 वर्षीय पत्नी स्वर्णलक्ष्मी ख़ुद शाकाहारी हैं लेकिन उनका नॉनवेज होटल इतना मशहूर है कि कई सौ किलोमीटर दूर से लोग उनके यहां खाना खाने आते हैं. कोयंबटूर के सीनापुरम गांव से स्वादिष्ट खाने की महक लिए उषा प्रसाद की रिपोर्ट.
  • Bhavna Juneja's Story

    मां की सीख ने दिलाई मंजिल

    यह प्रेरक दास्तां एक ऐसी लड़की की है, जो बहुत शर्मीली थी. किशोरावस्था में मां ने प्रेरित कर उनकी ऐसी झिझक छुड़वाई कि उन्होंने 17 साल की उम्र में पहली कंपनी की नींव रख दी. आज वे सफल एंटरप्रेन्योर हैं और 487 करोड़ रुपए के बिजनेस एंपायर की मालकिन हैं. बता रही हैं सोफिया दानिश खान
  • Caroleen Gomez's Story

    बहादुर बेटी

    माता-पिता की अति सुरक्षित छत्रछाया में पली-बढ़ी कैरोलीन गोमेज ने बीई के बाद यूके से एमएस किया. गुड़गांव में नौकरी शुरू की तो वे बीमार रहने लगीं और उनके बाल झड़ने लगे. इलाज के सिलसिले में वे आयुर्वेद चिकित्सक से मिलीं. धीरे-धीरे उनका रुझान आयुर्वेदिक तत्वों से बनने वाले उत्पादों की ओर गया और महज 5 लाख रुपए के निवेश से स्टार्टअप शुरू कर दिया। दो साल में ही इसका टर्नओवर 50 लाख रुपए पहुंच गया. कैरोलीन की सफलता का संघर्ष बता रही हैं सोफिया दानिश खान...