गत्ते के फर्नीचर बनाकर चार साल में कमाने लगी एक करोड़
23-Nov-2024
By देवेन लाड
मुंबई
अपने गृहराज्य बिहार से निकलकर मुंबई में बसना और दस साल से भी कम समय में सफलता पा लेना आसान नहीं.
बंदना जैन अपने परिवार की पहली महिला हैं, जो करियर के लिए अपना गांव छोड़कर मुंबई जा बसीं.
आज 30 साल की यह उद्यमी अपने स्टाइलिश इको-फ्रेंडली फ़र्नीचर के लिए मशहूर है.
गत्ते के बने ये फ़र्नीचर अंधेरी स्थित स्टूडियो और रिटेल वेबसाइट्स से बेचे जाते हैं.
बंदना ने साल 2013 में महज 13,000 रुपए से सिल्विन स्टूडियो की स्थापना की थी. (सभी फ़ोटो – मनोज पाटील)
|
आपको विश्वास नहीं होगा, लेकिन सिल्विन की साल 2017 में एक करोड़ रुपए आमदनी रही है.
50 सदस्यों वाले संयुक्त परिवार में जन्मी बंदना बिहार के छोटे से गांव ठाकुरगंज में रहती थीं.
वो याद करती हैं, “हमारे परिवार के सिर्फ़ पुरुष शहर पढ़ने जाते थे. महिलाएं शादी होने तक घरों में ही रहती थीं.”
कला में रुचि रखने वाली बंदना जब बचपन में दुर्गा पूजा पंडालों में जाती थीं, तो उनकी ख़ूबसूरती और कलाकारी देख दंग रह जाती थीं. वो जानना चाहती थीं कि इन्हें कैसे बनाया जाता है, लेकिन उन्हें कलाकारों से बात करने की इजाज़त नहीं होती थी.
जब वो बड़ी हुईं तो कॉमर्स में ग्रैजुएशन के बाद मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट के बारे में सुना. पर परिवार ने कहा कि यह शादी के बाद ही संभव हो सकेगा.
बंदना ने यही किया. उन्होंने आईआईएम लखनऊ में पढ़ रहे अपने ब्वायफ़्रेंड मनीष को मुंबई में जॉब करने के लिए मनाया और साल 2008 में शादी के बाद अपने सपनों का पीछा करती मुंबई आ गईं.
अप्रैल 2008 में उन्होंने जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट के लिए प्रवेश पत्र भरा. जून में टेस्ट होना था.
उनके पास तैयारी के लिए सिर्फ़ डेढ़ महीने थे. किसी ने उन्हें कॉलेज के पूर्व स्टूडेंट जावेद मुलानी की ट्यूशंस के बारे में बताया और उन्होंने जमकर दिन के 12 घंटे तक पढ़ाई की.
जावेद के साथ उन्होंने अलग नज़रिये से सोचना सीखा. अलग-अलग डिज़ाइन, 2डी, 3डी, मेमोरी डिज़ाइन भी सीखीं.
बचपन में बंदना दुर्गा पूजा के पंडालों से ख़ासी आकर्षित थीं, लेकिन उन्हें उन कलाकारों से मिलने की इजाज़त नहीं थी, जो पंडाल बनाते थे.
|
जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट में बाहरी छात्रों के लिए महज आठ सीटें थीं, लेकिन बंदना की मेहनत रंग लाई और उनका एडमिशन हो गया.
कॉलेज में उन्हें बहुत प्रोत्साहन और सहयोग मिला. वो कहती हैं, “कॉलेज में मेरे चारों तरफ़ बेहद प्रतिभावान छात्र थे, उन्होंने मेरी मदद की. कुछ तो मुझे पढ़ाने घर भी आते थे.”
बंदना का कोर्स पूरा हुआ, लेकिन उन्हें पता नहीं था कि वो इस डिग्री का क्या करेें.
वो बताती हैं, “उसी समय पति ने एक घर ख़रीदा. मेरे पास काफ़ी वक्त था, इसलिए मैंने घर के लिए एक कुर्सी डिज़ाइन की. मैं चाहती थी कि यह अलग हो, इसलिए इसे गत्ते से बनाने पर विचार किया.”
बंदना ने धारावी से लेकर क्रॉफ़ोर्ड मार्केट तक तीन महीने अच्छी क्वालिटी का रिसाइकल्ड गत्ता खोजा, लेकिन नहीं मिला. वो मुंबई में हर कबाड़ी के यहां गईं, लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी.
आखि़र में एक जगह उन्हें गत्ता मिल गया, लेकिन अब उसे काटना आसान नहीं था. बंदना बताती हैं, “मैंने ऑनलाइन ट्यूटोरियल देखकर एक ब्लैड बनाई, जो गत्ते को ख़राब नहीं करती थी.”
बंदना की फैक्टरी और स्टूडियो में कुल १८ लोग काम करते हैं.
|
तीन महीने और 4,000 रुपए ख़र्च के बाद आखि़रकार कुर्सी तैयार हो गई.
हंसते हुए बंदना कहती हैं, “मुझे लगा कि यह अच्छा आइडिया नहीं है.”
लेकिन वो सचमुच एक अच्छा आइडिया था. उन्होंने जेजे के अपने साथी राहुल डोंगरे से मदद मांगी.
राहुल को उनका आइडिया पसंद आया और उन्होंने साल 2013 में महज 13,000 रुपए से सिल्विन की शुरुआत कर दी. राहुल अब स्टूडियो में मैनेजर हैं.
‘सिल्विन’ रोमन भगवान का नाम है, जो जंगलों की रक्षा करते हैं. यह नाम इको-फ्रेंडली फ़र्नीचर पर भी सटीक बैठता था.
बंदना बताती हैं, “इसके बाद हमने पांच सीटर सोफ़ा बनाया. फिर लैंप के साथ प्रयोग किया. 10-12 लैंप पूरे करने के बाद दोस्तों-परिवार वालों को दिखाए, तो उन्हें बेहद पसंद आए. ”
गोरेगांव की एक प्रदर्शनी में हिस्सा लेने से उनमें आत्मविश्वास आया. साथ ही सीख भी मिली.
उसके बाद उन्होंने फ़र्नीचर वेबसाइट जैसे पेपरफ़्राई और अमेज़न पर सामान बेचना शुरू कर दिया, जिससे ठीकठाक आमदनी होने लगी.
अपने बनाए एक लैंप के साथ बंदना.
|
आज सिल्विन की वसई में एक फ़ैक्टरी है, जहां 10 स्थानीय महिलाएं काम करती हैं.
बंदना के काम की ख़ासियत उनका रिसाइकल्ड गत्ता है. उनके लैंप की क़ीमत 4,500 से 7,000 रुपए है. सोफ़े की क़ीमत पांच लाख रुपए तक है.
साल 2020 तक बंदना का लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कंपनी को पहुंचाना है. वो कहती हैं, “मेरी इच्छा है कि मैं सिल्विन को अंतरराष्ट्रीय फ़र्नीचर प्रदर्शनी मिलान सालोन डेल मोबाइल में ले जाऊं.”
आप इन्हें भी पसंद करेंगे
-
कागज के फूल बने करेंसी
बेंगलुरु के 53 वर्षीय हरीश क्लोजपेट और उनकी पत्नी रश्मि ने बिजनेस के लिए बचपन में रंग-बिरंगे कागज से बनाए जाने वाले फूलों को चुना. उनके बनाए ये फूल और अन्य क्राफ्ट आयटम भारत सहित दुनियाभर में बेचे जा रहे हैं. यह बिजनेस आज सालाना 64 करोड़ रुपए टर्नओवर वाला है. -
सिंधु के स्पर्श से सोना बना बिजनेस
तमिलनाडु के तिरुपुर जिले के गांव में एमबीए पास सिंधु ब्याह कर आईं तो ससुराल का बिजनेस अस्त-व्यस्त था. सास ने आगे बढ़ाया तो सिंधु के स्पर्श से बिजनेस सोना बन गया. महज 10 लाख टर्नओवर वाला बिजनेस 6 करोड़ रुपए का हो गया. सिंधु ने पति के साथ मिलकर कैसे गांव के बिजनेस की किस्मत बदली, बता रही हैं उषा प्रसाद -
फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन
आज दुनिया में ‘फ़र्न्स एन पेटल्स’ जाना-माना ब्रैंड है लेकिन इसकी कहानी बिहार से शुरू होती है, जहां का एक युवा अपने पूर्वजों की ख़्याति को फिर अर्जित करना चाहता था. वो आम जीवन से संतुष्ट नहीं था, बल्कि कुछ बड़ा करना चाहता था. बिलाल हांडू बता रहे हैं यह मशहूर ब्रैंड शुरू करने वाले विकास गुटगुटिया की कहानी. -
कंसल्टेंसी में कमाल से करोड़ों की कमाई
विजयवाड़ा के अरविंद अरासविल्ली अमेरिका में 20 लाख रुपए सालाना वाली नौकरी छोड़कर देश लौट आए. यहां 1 लाख रुपए निवेश कर विदेश में उच्च शिक्षा के लिए जाने वाले छात्रों के लिए कंसल्टेंसी फर्म खोली. 9 साल में वे दो कंपनियों के मालिक बन चुके हैं. दोनों कंपनियों का सालाना टर्नओवर 30 करोड़ रुपए है. 170 लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं. अरविंद ने यह कमाल कैसे किया, बता रही हैं सोफिया दानिश खान -
जैविक खेती ही खुशहाली
मधु चंदन सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में अमेरिका में मोटी सैलरी पा रहे थे. खुद की कंपनी भी शुरू कर चुके थे, लेकिन कर्नाटक के मांड्या जिले में किसानों की आत्महत्याओं ने उन्हें झकझोर दिया और वे देश लौट आए. यहां किसानों को जैविक खेती सिखाने के लिए खुद किसान बन गए. किसानों को जोड़कर सहकारी समिति बनाई और जैविक उत्पाद बेचने के लिए विशाल स्टोर भी खोले. मधु चंदन का संघर्ष बता रहे हैं बिलाल खान