ख़ुद वेजिटेरियन हैं, पर नॉनवेज भोजन बनाने में इन्हें महारत हासिल है
12-Dec-2025
By उषा प्रसाद
कोयंबटूर
कोयंबटूर से 79 किलोमीटर दूर है इरोड जिला. यहां सीनापुरम गांव में अपने घर पर होटल चला रहे एक दंपति की बदौलत गांव को दुनिया के नक्शे पर पहचान मिली है.
होटल का नाम है यूबीएम नम्मा वीटू सापाडु. यहां नॉनवेज (मांसाहारी) भोजन मिलता है जिसे खाने बेंगलुरु और चेन्नई जैसे शहरों से भी लोग आते हैं.
![]() |
|
यूबीएम नम्मा वीटू सापाडु में ग्राहकों को भोजन परोसते आर. करुनैवेल और स्वर्णलक्ष्मी. (सभी फ़ोटो – एच.के. राजाशेकर)
|
होटल की ख़ासियत यहां 500 रुपए (कुछ मामलों में 700 रुपए तक) में मिलने वाला पेटभर भोजन है. इसमें मटन, चिकन, फ़िश, टर्की आदि से बने क़रीब 20 प्रकार के परंपरागत मांसाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं.
भोजन सात से आठ फ़ीट लंबे केले के पत्ते पर सर्व किया जाता है. एक पत्ते पर चार से पांच लोगों का परिवार साथ बैठकर भोजन कर सकता है.
आप चाहें तो छोटे पत्ते पर भी खाना परोसा जाता है.
होटल के मालिक हैं 60 साल के आर. करुनैवेल और उनकी 53 वर्षीय पत्नी स्वर्णलक्ष्मी.
करुनैवेल बताते हैं, “सप्ताह के अंत या छुट्टियों में होटल में क़रीब 150 लोग आते हैं. बाकी दिनों में यह संख्या 50 तक रह जाती है.
![]() |
|
एक ग्राहक को अपने हाथों से खिलाते करुनैवेल.
|
लोग अपने पसंदीदा भोजन के लिए 150 से 200 किलोमीटर तक का सफ़र करके आते हैं.
करुनैवेल कहते हैं, “होटल से जाते समय लोगों के चेहरों की मुस्कुराहट मुझे और मेहनत करने की ऊर्जा देती है.”
विभिन्न मांसाहारी खाना जैसे मटन कोलांबू, रथपोरियाल, कुडाल करी, थलाईकरी, लिवर करी तथा ब्रॉयलर चिकन व नाटुकोली (कंट्री) चिकन से बनी डिश, मीनकोलांबू (फ़िश करी) के अलावा यहां चावल, रसम और दही भी उपलब्ध रहता है.
![]() |
|
करुनैवेल की होटल के बाहर अपनी बारी का इंतज़ार करती भीड़.
|
रोचक बात यह है कि करुनैवेल और उनकी पत्नी दोनों कठोर शाकाहारी हैं.
करुनैवेल बताते हैं, “मैं भगवान शिव को मानने वाला हूँ. मैं अंडा तक नहीं खाता. मैं दिन में एक बार शाम पांच बजे शुद्ध शाकाहारी भोजन करता हूं. यह खाना मेरी आठ साल की पोती मुझे खिलाती है. मेरी पत्नी ने आठ साल पहले मांसाहारी खाना छोड़ दिया था.”
![]() |
|
करुनैवेल और उनकी पत्नी भोजन बनाने का आनंद लेते हैं और लोगों को मन भरने तक खिलाते हैं.
|
...तो फिर यह होटल कैसे शुरू हुआ?
इस सवाल पर करुनैवेल बताते हैं, “हमारा परिवार मेहमाननवाज़ी के लिए जाना जाता था. मेरे दादा-दादी इस बात को सुनिश्चित करते थे कि घर आया कोई व्यक्ति भूखा न जाए. मेरे माता-पिता ने भी इस बात का पालन किया और हम भी इसी परंपरा को निभा रहे हैं.”
“हालांकि हमारा परिवार आर्थिक रूप से संपन्न था, लेकिन हम लोगों को मुफ़्त खाना नहीं खिला सकते थे क्योंकि मांसाहारी भोजन महंगा पड़ता था और इतनी बड़ी संख्या में लोगों को खाना खिलाना संभव नहीं था.”
जब करुनैवेल युवा थे तो वो घर में कई तरह का स्वादिष्ट खाना खाकर बड़े हुए.
वो बताते हैं, “स्वाद और प्रामाणिकता ऐसी बातें हैं, जिससे हम समझौता नहीं कर सकते. प्रत्येक मांसाहारी डिश की रेसिपी में थोड़े बदलाव किए गए. ये हमारे बुज़ुर्गों की भेंट है.”
![]() |
|
किचन में भोजन गर्म करतीं स्वर्णलक्ष्मी.
|
साल 1992-93 में करुनैवेल के परिवार ने अपने गांव के आराघर में एक कैंटीन से शुरुआत की. छह साल बाद इसे उन्होंने अपने घर से आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया.
करुनैवेल बताते हैं, “चूंकि हमारा घर मुख्य सड़क पर है, इसलिए वहां से गुज़रने वाले सरकारी अधिकारी भोजन करने के लिए रुक जाते थे. धीरे-धीरे लोग हमारे बारे में जानने लगे और आने लगे.”
पति-पत्नी ख़ुद ही मीट और मसाले चुनते हैं. करुनैवेल मीट की गुणवत्ता, मछली आदि की जांच करते हैं और पत्नी को बताते हैं कि मसाला पेस्ट कैसे बनाया जाए.
वो कहते हैं, “खाना पूरी तरह मेरी पत्नी बनाती है. इस तरह हम खाने की गुणवत्ता पर बेहतर नियंत्रण रख पाते हैं.”
![]() |
|
होटल में स्वादिष्ट भोजन का इंतज़ार करता परिवार.
|
“हमारा मक़सद है कि लोग यहां घर की तरह महसूस करें और अपने परिवार के साथ मिलकर एक पत्ते पर खाना खाएं. जो लोग एक पत्ते पर खाना खाने से हिचकते हैं, उन्हें हम अलग-अलग छोटे पत्तों पर खाना सर्व करते हैं.”
संयोगवश अगर आप शाकाहारी हैं और यूबीएम के सामने से गुज़रते हैं, तो चिंता की बात नहीं है.
करुनैवेल कहते हैं, “लगभग रोज़ ही पांच लोगों के लिए पर्याप्त शाकाहारी भोजन उपलब्ध रहता है. यहां आने वाला कभी बिना खाए नहीं जाता.”
![]() |
|
होटल के सामने का नज़ारा.
|
करुनैवेल कहते हैं, “मेरी मेहनत का पुरस्कार यही है कि यूबीएम नम्मा वीटू सापाडु हमारे स्थायी ग्राहकों के बीच जाना-माना नाम बन गया है.”
आप इन्हें भी पसंद करेंगे
-
‘हेलमेट मैन’ का संघर्ष
1947 के बंटवारे में घर बार खो चुके सुभाष कपूर के परिवार ने हिम्मत नहीं हारी और भारत में दोबारा ज़िंदगी शुरू की. सुभाष ने कपड़े की थैलियां सिलीं, ऑयल फ़िल्टर बनाए और फिर हेलमेट का निर्माण शुरू किया. नई दिल्ली से पार्थो बर्मन सुना रहे हैं भारत के ‘हेलमेट मैन’ की कहानी. -
मार्बल भाईचारा
पेपर के पुश्तैनी कारोबार से जुड़े दिल्ली के अग्रवाल परिवार के तीन भाइयों पर उनके मामाजी की सलाह काम कर गई. उन्होंने साल 2001 में 9 लाख रुपए के निवेश से मार्बल का बिजनेस शुरू किया. 2 साल बाद ही स्टोनेक्स कंपनी स्थापित की और आयातित मार्बल बेचने लगे. आज इनका टर्नओवर 300 करोड़ रुपए है. -
शीशे से चमकाई किस्मत
कोलकाता के मोहम्मद शादान सिद्दिक के लिए जीवन आसान नहीं रहा. स्कूली पढ़ाई के दौरान पिता नहीं रहे. चार साल बाद परिवार को आर्थिक मदद दे रहे भाई का साया भी उठ गया. एक भाई ने ग्लास की दुकान शुरू की तो उनका भी रुझान बढ़ा. शुरुआती हिचकोलों के बाद बिजनेस चल निकला. आज कंपनी का टर्नओवर 5 करोड़ रुपए सालाना है. शादान कहते हैं, “पैसे से पैसा नहीं बनता, लेकिन यह काबिलियत से संभव है.” बता रहे हैं गुरविंदर सिंह -
फ़्रेशली का बड़ा सपना
एक वक्त था जब सतीश चामीवेलुमणि ग़रीबी के चलते लंच में पांच रुपए का पफ़ और एक कप चाय पी पाते थे लेकिन उनका सपना था 1,000 करोड़ रुपए की कंपनी खड़ी करने का. सालों की कड़ी मेहनत के बाद आज वो उसी सपने की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं. चेन्नई से पीसी विनोज कुमार की रिपोर्ट -
जॉनी का जायकेदार हॉट डॉग
इंदौर के विजय सिंह राठौड़ ने करीब 40 साल पहले महज 500 रुपए से हॉट डॉग बेचने का आउटलेट शुरू किया था. आज मशहूर 56 दुकान स्ट्रीट में उनके आउटलेट से रोज 4000 हॉट डॉग की बिक्री होती है. इस सफलता के पीछे उनकी फिलोसॉफी की अहम भूमिका है. वे कहते हैं, ‘‘आप जो खाना खिला रहे हैं, उसकी शुद्धता बहुत महत्वपूर्ण है. आपको वही खाना परोसना चाहिए, जो आप खुद खा सकते हैं.’’







