Milky Mist

Friday, 26 April 2024

दंगे की भेंट चढ़ी फैक्टरी, पर फिर उठ खडे़ हुए, अब सालाना टर्नओवर है 350 करोड़ रुपए

26-Apr-2024 By गुरविंदर सिंह
गिरिडीह (झारखंड)

Posted 13 May 2019

झारखंड के नगर गिरिडीह में स्‍टील का बादशाह हर जगह मौजूद है. काली पगड़ी बांधे और हाथों में टीएमटी सरिया थामे गुणवंत सिंह मोंगिया नगर में हर पोस्‍टर पर नजर आते हैं. इन पर लिखा है ‘‘स्‍टील का बादशाह.’’

गुणवंत सिंह टीएमटी सरिया बनाने वाली कंपनी मोंगिया स्‍टील लिमिटेड के ब्रांड एंबेसडर ही नहीं हैं, बल्कि कंपनी के संस्‍थापक भी हैं. एक ऐसी कंपनी जिसका वर्ष 2018-2019 में टर्नओवर 350 करोड़ रुपए रहा है. मोंगिया झारखंड के सफलतम सरिया निर्माताओं में से एक हैं.

वर्ष 1984 में सिख विरोधी दंगों में दंगाइयों ने गुणवंत सिंह मोंगिया की रोलिंग मिल में लूटपाट कर ली थी. इसके बाद उन्‍होंने कारोबार फिर खड़ा किया. (सभी फोटो : मोनिरुल इस्‍लाम मुलिक)


हालांकि प्रतिष्‍ठा के चरमोत्‍कर्ष पर पहुंचने के लिए 57 वर्षीय स्‍टील टायकून को कई विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा. गुणवंत सिंह याद करते हैं, ‘‘1984 में सिख विरोधी दंगों में लोग हमारी फैक्‍टरी से सामान लूटकर बेच रहे हैं, लेकिन हम बेबस थे. हमारे परिवार को तीन दिन तक घर में कैद होकर रहना पड़ा. फैक्‍टरी को फिर शुरू करने में बहुत सा पैसा लग गया. ऐसे में हम बड़े कर्ज में डूब गए.’

31 अक्‍टूबर के दिन तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्‍या हुई और सिख विरोधी दंगे भड़के, मोंगिया उसी दिन 22 साल के हुए थे. उस समय वे अपने बजाज स्‍कूटर पर गांव-गांव जाकर लोहे की कीलें बेचा करते थे.

ये कीलें एक छोटी फैक्‍टरी में बनाई जाती थीं, जो गुणवंत सिंह के पिता दलजीत सिंह ने वर्ष 1974 में स्‍थापित की थी. मोंगिया ने 1982 में कॉलेज छोड़कर बिजनेस में कदम रखा. परिवार सिर्फ इस कील फैक्‍टरी की बदौलत बच पाया.

दलजीत सिंह 1946 में अविभाजित पा‍किस्‍तान से पलायन कर आए थे और गिरिडीह में बस गए थे. मोंगिया कहते हैं, ‘‘उन्‍होंने कारपेंटर का काम शुरू किया और वे उन दिनों 2 पैसे कमाने लगे.’’

धीरे-धीरे, दलजीत सिंह समृद्ध हुए तो उन्‍होंने फर्नीचर की दुकान शुरू की. बाद में आरा मशीन डाली. फिर प्‍लाईवुड बिजनेस में आए.

अपने प्रोडक्‍ट के लिए किसी सेलिब्रिटी का खर्च उठाने में असमर्थ मोंगिया ने खुद ही मोंगिया स्‍टील का ब्रांड एंबेसडर बनने की ठानी.


मोंगिया 1982 में जब पुश्‍तैनी कारोबार से जुड़े, तब कील फैक्‍टरी बेहतर चल रही थी. वर्ष 1983 में उन्‍होंने बड़े भाई अमरजीत सिंह के साथ मिलकर रोलिंग मिल शुरू की. वर्ष 1983 में 1.41 एकड़ में 12 लाख रुपए के निवेश से बनी रोलिंग मिल में रोज 3-4 टन सरिया बनता था.

मोंगिया कहते हैं, ‘‘हम बिजनेस का विस्‍तार कर रहे थे कि वर्ष 1984 में दंगे हो गए.’’ रोलिंग मिल के नुकसान ने अधिक समर्पण से फिर शुरुआत करने का साहस दिया.

वर्ष 1988 में कठिन परिश्रम का फल मिला. रोलिंग मिल का बिज़नेस चल पड़ा. रोज 7-8 टन उत्‍पादन होने लगा. उसी साल उन्‍होंने रोलिंग मिल पर ध्‍यान देने के लिए कील फैक्‍टरी बंद कर दी.

गिरिडीह में मोंगिया स्‍टील प्‍लांट में 300 से अधिक लोग काम करते हैं.

वर्ष 1991 में, दलजीत सिंह और दोनों बेटों ने गिरिडीह में ही 2.5 एकड़ में 30 लाख रुपए के निवेश से दूसरी रोलिंग मिल शुरू की. वर्ष 1995 में मोंगिया हाई टेक प्राइवेट लिमिटेड नाम से तीसरी रोलिंग मिल रजिस्‍टर्ड करवाई गई. उन्‍होंने बैंक से 45 लाख रुपए का लोन लेकर 7.5 एकड़ में रोलिंग मिल शुरू की और 1983 में शुरू की गई रोलिंग मिल वर्ष 1997 में बेच दी.

जीवन का बड़ा टर्निंग पॉइंट तब आया, जब वर्ष 2000 में गुणवंत के बड़े भाई अमरजीत सिंह ने कारोबार अलग कर लिया. वे अपनी रोलिंग मिल शुरू करने असम चले गए्.

गुणवंत कहते हैं, ‘‘अब मैं अकेला पड़ गया था. पिता भी ढलती उम्र के चलते आराम करने लगे थे. अब सारे निर्णय मुझे ही करने थे. मैं एक और रोलिंग मिल शुरू करने को लेकर उलझन में था क्‍योंकि यह बिजनेस ठीक नहीं चल रहा था. खराब हालत के चलते मुझे वर्ष 1991 में स्‍थापित दूसरी रोलिंग मिल भी बंद करना पड़ी थी.’’

वर्ष 2001 में उन्‍होंने इस कारोबार से अलग पाइप बनाने के लिए स्ट्रिप मिल शुरू करने का फैसला किया. वे कहते हैं, ‘‘मैंने तीसरी रोलिंग मिल में कुछ बदलाव किए. इस तरह अधिक निवेश की जरूरत नहीं पड़ी और स्ट्रिप मिल शुरू कर दी. इसमें कुछ पैसा भी बना.’’

लेकिन अब भी घाटा अधिक था. जो टर्नओवर वर्ष 2000 में 18 करोड़ था, वह वर्ष 2003 में गिरकर 8 करोड़ रह गया था. इसलिए वर्ष 2003 में उन्‍होंने तय किया कि वे रोलिंग मिल बिजनेस में नई जान डालेंगे. इस तरह वे नई तकनीक टीएमटी सरिया लेकर आए. टीएमटी का मतलब था थर्मो मेकनिकली ट्रीटेड. इन सरियों की बाहरी सतह कठोर, जबकि भीतरी हिस्‍सा मुलायम होता है. ये पारंपरिक सरियों के मुकाबले अधिक मजबूत और टिकाऊ होते हैं.

मोंगिया के पास आज कई लग्‍जरी कारें हैं, लेकिन वे अपनी पहली एयर कंडीशंड मारुति ओमनी कार को नहीं भूल सकते.

वे कहते हैं, ‘‘झारखंड में टीएमटी सरिया सबसे पहले मैं ही लाया. लेकिन लोग इन्‍हें छूते भी नहीं थे. मैं ठेकेदारों और श्रमिकों से मिला. उन्‍हें समझाया कि टीएमटी सरिये आम सरियों से बेहतर हैं. ’’

जल्‍द ही मोंगिया को अहसास हो गया कि टीएमटी सरियों के लिए मांग पैदा करने का एकमात्र जरिया विज्ञापन हैं. वे कहते हैं, ‘‘मेरे पास बॉलीवुड हस्तियों से प्रचार कराने के पैसे नहीं थे. इसलिए मैंने तय किया कि मैं खुद ही ब्रांड एंबेसडर बनूंगा और यह संदेश दूंगा कि यह उत्‍पाद सिखों के बहादुरी जितना मजबूत है. इससे काम बन गया और मैं झारखंड में घर-घर चर्चित हो गया.’’

वर्ष 2003 में मोंगिया स्‍टील लिमिटेड हो गया. वर्तमान में 30 एकड़ के कैंपस में 350 टन सरिया रोज उत्‍पादित होता है. कंपनी में 300 से अधिक कर्मचारी हैं. टीएमटी सरिया के अलावा वे बिलेट्स, पाइप और प्रोफाइल बनाते हैं.

गुणवंत के 32 वर्षीय बेटे हरिंदर सिंह भी कारोबार से जुड़ गए हैं. कंपनी के तीन डायरेक्‍टर हैं- गुणंवत सिंह मोंगिया, उनकी पत्‍नी त्रिलोचल कौर और हरिंदर. हरिंदर के पास भी नई योजना है. वे बताते हैं, ‘‘मैं कंपनी को नई ऊंचाइयों पर ले जाना चाहता हूं और विस्‍तार करना चाहता हूं.’’

मोंगिया के बेटे हरिंदर सिंह (खड़े हुए) कारोबार को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के प्रति प्रतिबद्ध हैं.

 

आश्‍चर्यजनक सफलता के बावजूद मोंगिया जमीन से जुड़े हैं. वे अब भी उन दिनों को याद करते हैं जब वे स्‍कूटर पर कीलें बेचा करते थे.

वे कहते हैं, ‘‘जीवन वाकई मुश्किल था. मैं 50 किग्रा वजनी कीलें बजाज स्‍कूटर पर लेकर 250 किमी इलाके में घूमता था और ऑर्डर लिया करता था. कीलों से जख्‍म होते थे, लेकिन सफर नहीं रुकता था.’’

लेकिन तब भी वे उन्‍होंने बड़ा ही सोचा, जैसी उनके पिता सलाह दिया करते थे. आज भी मोंगिया का सफलता का मंत्र है - ‘कभी उम्‍मीद मत छोड़ो. विश्‍वास करो कि आप कर सकते हो.’ 


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • Senthilvela story

    देसी नस्ल सहेजने के महारथी

    चेन्नई के चेंगलपेट के रहने वाले सेंथिलवेला ने देश-विदेश में सिटीबैंक और आईबीएम जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों की 1 करोड़ रुपए सालाना की नौकरी की, लेकिन संतुष्ट नहीं हुए. आखिर उन्होंने पोल्ट्री फार्मिंग का रास्ता चुना और मुर्गियों की देसी नस्लें सहेजने लगे. उनका पांच लाख रुपए का शुरुआती निवेश अब 1.2 करोड़ रुपए सालाना के टर्नओवर में तब्दील हो चुका है. बता रही हैं उषा प्रसाद
  • Success story of three youngsters in marble business

    मार्बल भाईचारा

    पेपर के पुश्तैनी कारोबार से जुड़े दिल्ली के अग्रवाल परिवार के तीन भाइयों पर उनके मामाजी की सलाह काम कर गई. उन्होंने साल 2001 में 9 लाख रुपए के निवेश से मार्बल का बिजनेस शुरू किया. 2 साल बाद ही स्टोनेक्स कंपनी स्थापित की और आयातित मार्बल बेचने लगे. आज इनका टर्नओवर 300 करोड़ रुपए है.
  • how a boy from a village became a construction tycoon

    कॉन्ट्रैक्टर बना करोड़पति

    अंकुश असाबे का जन्म किसान परिवार में हुआ. किसी तरह उन्हें मुंबई में एक कॉन्ट्रैक्टर के साथ नौकरी मिली, लेकिन उनके सपने बड़े थे और उनमें जोखिम लेने की हिम्मत थी. उन्होंने पुणे में काम शुरू किया और आज वो 250 करोड़ रुपए टर्नओवर वाली कंपनी के मालिक हैं. पुणे से अन्वी मेहता की रिपोर्ट.
  • Making crores in paper flowers

    कागज के फूल बने करेंसी

    बेंगलुरु के 53 वर्षीय हरीश क्लोजपेट और उनकी पत्नी रश्मि ने बिजनेस के लिए बचपन में रंग-बिरंगे कागज से बनाए जाने वाले फूलों को चुना. उनके बनाए ये फूल और अन्य क्राफ्ट आयटम भारत सहित दुनियाभर में बेचे जा रहे हैं. यह बिजनेस आज सालाना 64 करोड़ रुपए टर्नओवर वाला है.
  • Multi-crore businesswoman Nita Mehta

    किचन से बनी करोड़पति

    अपनी मां की तरह नीता मेहता को खाना बनाने का शौक था लेकिन उन्हें यह अहसास नहीं था कि उनका शौक एक दिन करोड़ों के बिज़नेस का रूप ले लेगा. बिना एक पैसे के निवेश से शुरू हुए एक गृहिणी के कई बिज़नेस की मालकिन बनने का प्रेरणादायक सफर बता रही हैं दिल्ली से सोफ़िया दानिश खान.